लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

Like this Hindi book 0

संभोग से समाधि की ओर...



14

नारी एक और आयाम

स्त्री और पुरुष के इतिहास में भेद की भिन्नता की, लंबी कहानी जुड़ी हई है। बहुत प्रकार के वर्ग हमने निर्मित किए हैं। गरीब का अमीर का धन के आधार पर, पद के आधार पर। और सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि हमने स्त्री-पुरुष के बीच भी वर्गों का निर्माण किया है! शायद हमारे और सारे वर्ग जल्दी मिट जाएंगे, स्त्री-पुरुष के बीच खड़ी की गयी दीवाल को मिटाने में बहुत समय लग सकता है। बहुत कारण हैं।
स्त्री और पुरुष भिन्न हैं यह तो निश्चित है, लेकिन असमान नहीं।
भिन्नता और असमानता दो अलग बातें हैं। भिन्न होना एक बात है। सच मे एक आदमी दूसरे आदमी से भिन्न है ही। कोई आदमी समान नहीं है। कोई पुरुष भी समान नहीं है। सी और पुरुष भी भिन्न हैं। लेकिन भिनता को वर्ग बनाना ऊंचा-नीचा बनाना मनुष्य का पुराना षड्यंत्र और शैतानी रही है।
हजारों वर्षों का अतीत का इतिहास स्त्री के शोषण का इतिहास भी है। पुरुष ने ही चूंकि सारे कानून निर्मित किए हैं और पुरुष चूंकि शक्तिशाली था, उसने स्त्री पर जो भी थोपना चाहा थोप दिया।
जब तक स्त्री के ऊपर से गुलामी नहीं उठती तब तक दुनिया से गुलामी का बिल्कुल अंत नहीं हो सकता।

राष्ट्र स्वतंत्र हो जाएंगे। आज नहीं कल, गरीब और अमीर के बीच के फासले भी कम हो जाएंगे, लेकिन स्त्री और पुरुष के बीच शोषण का जाल सबसे गहरा है। स्त्री और पुरुष के बीच फासले की कहानी इतनी लंबो हो गयी है कि करीब-करीब भूल गयी हैं। स्वयं स्त्रियों को भी भूल गयी है, पुरुषों को भी भूल गयी है!

इस सबंध मे थोड़ी बातें विचार करना उपयोगी होगा। इसलिए कि आने वाली जिंदगी को जिसे आप बनाने में लगेंगे-हों सकता है स्त्री और पुरुष के बीच समानता का, स्वतंत्रता का एक समाज और एक परिवार निर्मित कर सके। अगर खयाल ही न हो तो हम पुराने ढांचों मे ही फिर घूमकर जीने लगते हैं। हमे पता भी नहीं चलता कि हमने कब पुरानी लीकों पर चलना शुरू कर दिया है!
आदमी सबसे ज्यादा सुगम इसे ही पाता है कि जो हो रहा था, वैसा ही होता चला जाए लीस्ट रेसिस्टेंस वही है। इसलिए पुराने ढंग का परिवार चलता चला जाता है। पुरानी समाज व्यवस्था चली जाती है। पुराने ढंग से सोचने के ढंग चलते चले जाते हैं। तोड़ने में कठिनाई मालूम पड़ती है, बदलने में मुश्किल मालूम पड़ती है-दो कारणों से। एक तो पुराने की आदत और दूसरा नए को निर्माण करने की मुश्किल।
सिर्फ वे ही पीढ़ियां पुराने को तोड़ती हैं जो नए को सृजन देने की क्षमता रखती हैं। विश्वास रखती हैं स्वयं पर। और स्वयं का विश्वास न हो तो हम पुरनि पीढ़ी के पीछे चलते चले जाते हैं। वह पुरानी पीढ़ी भी अपनें से पुरानी पीढ़ी के पीछे चल रही है! कुछ छोटी-सी स्मरणीय बातें पहले हम खयाल कर लें-स्त्री और पुरुष के बीच फासले, असमानता किस-किस रूप में खड़ी हुई हैं।
भिन्नता सुनिश्चित है और भिन्नता होनी ही चाहिए।
भिन्नता ही स्त्री को व्यक्तित्व देती है और पुरुषों को व्यक्तित्व देती है।
लेकिन हमने भिन्नता को ही असमानता मे बदल दिया। इसलिए सारी दुनिया में स्त्रियां भिन्नता को तोड़ने की कोशिश कर रहा हैं ताकि वे ठीक पुरुष जैसी मालूम पड़ने लगें। उन्हें शायद खयाल है कि इस भांति असमानता भी टूट जाएगी!
मैंने सुना है, एक सिनेमा गृह के सामने अमरीका के किसी नगर में बड़ी भीड़ है। क्यू लगा हुआ है। लंबी कतार है। लोग टिकट लेने को खड़े हैं। एक बूढ़े आदमी ने अपने सामने खड़े हुए व्यक्ति से पूछा, आप देखते हैं वह सामने जो लड़का खड़ा हुआ है, उसने किस तरह लड़कियों जैसे बाल बढ़ा रखे हैं। उस सामनेवाले व्यक्ति ने कहा, माफ करिए वह लड़का नहीं है, वह मैरी लड़की है। उस बूढ़े ने कहा क्षमा करिए मुझे क्या पता था कि आपकी लड़की है। तो आप, उसके पिता हैं? उसने कहा कि नहीं मैं उसकी मां हूं!

कपड़ों का फासला कम किया जा रहा है। धीरे-धीरे कपड़े करीब एक जैसै होते जा रहे हैं। हो सकता है, सौ वर्ष बाद कपड़ों के आधार पर फर्क करना मुश्किल हो जाए। लेकिन कपड़ों के फासले कम हो जाने से भिन्नता नही मिट जाएगी। भिन्नता गहरी, बायोलॉजिकल, जैविक और शारीरिक है। भिन्नता साइकोलॉजिकल भी है बहुत गहरे में। कपड़ों से कुछ फर्क नही पड़ जाने वाला है।
पुरुषों ने भी भिनता मिटाने के बहुत प्रयोग किए हैं। हमें खयाल में नहीं है। क्योंकि हम आदी हो जाते हैं। राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर की मूर्तियां और चित्र आपने देखे होंगे। और अगर सोचते होंगे थोड़ा-बहुत तो यह खयाल आया होगा कि इन लोगों के चेहरे पर दाढ़ी मूंछ क्यों दिखायी नही, पड़ते? असंभव है यह बात। एकाध के साथ हो भी सकता है कि किसी एक राम कृष्ण, महावीर किसी एक को दाढ़ी मूंछ न रही हो। यह संभव है। कभी हजार में एक पुरुष को नहीं भी होती। लेकिन चौबीस जैनियों के तीर्थंकर, हिंदुओं के सब अवतार, बुद्धों की सारी कल्पना, किसको दाढ़ी मूंछ नहीं है। कुछ कारण है। पुरुष को ऐसा लगा है कि स्त्री सुंदर है, तो सी जैसे होने से जैसे पुरुष भी सुंदर हो जाएगा। फिर राम और कृष्ण को तो हमने मान लिया कि उनको दाढ़ी मूंछ होती ही नहीं। फिर हम क्या करें? तो सारी जमीन पर परुष दाढ़ी मंछ को काटने की कोशिश में लगा है। स्त्री जैसा चेहरा बनाने की चेष्टा चल रही है। उससे भी कोई भेद मिट जाने वाले नहीं हैं।

न कपड़े बदलने से कोई फर्क पड़नेवाला है। न सपनों पर ऊपरी फर्क कर लेने से कुछ फर्क पड़नेवाला है। भेद गहरा है और अगर भेद मिटाने की कोशिश से हम चाहते हों कि असमानता मिटे तो असमानता कभी नहीं मिटेगी। असमानता हमारी थोपी हुई है। भेद में असमानता नहीं है। दो भिन्न व्यक्ति बिल्कुल समान हो सकते हैं। समान प्रतिष्ठा दी जा सकती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book