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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


जीवन भी छोटे-से बीज से ही भीतर से बाहर की तरफ फैलता है। और हम सारे ही लोग जीवन को खोजते हैं। बाहर! जीवन आता है भीतर से-फैलता है बाहर की तरफ। बाहर जीवन का विस्तार है, जीवन का केंद्र नहीं। जीवन की मूल ऊर्जा जीवन का मूल स्रोत भीतर है और जीवन की शाखाएं बाहर हैं। और तुम सब जीवन को खोजते हैं बाहर, इसलिए जीवन से वंचित रह जाते है जीवन कौ नहीं जान पाते हैं! पत्तों को जान लेते हैं पत्तों को पहचान लेते हैं लेकिन पत्ते?...पत्ते जड़ें नहीं हैं।

माओत्सेतुंग ने अपने बचपन की एक छोटी-सी घटना लिखी है। लिखा है कि मेरी मां का एक बगीचा था। उस बगीचे में ऐसे सुंदर फूल खिलते थे कि दूर-दूर से लोग उन्हें देखने आते थे। एकबार मेरी बूढ़ी मां बीमार पड़ गयी। वह बहुत चिंतित थी-अपनी बीमारी के लिए नहीं बगीचे में खिले फूलों के लिए-कि बगीचे में खिले फूल कुम्हला न जाएं। वह इतनी बीमार थी कि बिस्तर से बाहर नहीं निकल सकती थी।
मैंने मां से कहा तुम घबड़ाओ मत, मैं फिक्र कर लूंगा फूलों की। और मैंने
पद्रह दिन तक फूलों की बहुत फिक्र की। एक-एक पत्ते की धूल झाड़ी, एक-एक पत्ते को पोंछा और साफ किया। एक-एक पत्ते को संभाला, एक-एक फूल की फिक्र की. लेकिन न मालूम क्यों फूल मुरझाते गए पत्ते सूखते गए और सारा बगीचा सूखता गया!
पंद्रह दिन बाद बूढ़ी मा बाहर आयी और बाहर आकर उसने देखा कि उसकी सारी बगिया उजड़ गयी है! वृक्ष बेहोश होकर गिर पड़े हैं फूल कुम्हला गए हैं कलियाँ कलियां ही रह गयी हैं, फूल नहीं बनी हैं।
मां पूछने लगी, ''तू क्या करता रहा पंद्रह दिन तक? सुबह से रात तक सोता भी नही था! यह क्या हुआ?''
मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने कहा, ''मैंने बहुत फिक्र की। मैंने एक-एक पत्ते की धूल झाड़ी। मैंने एक-एक फूल पर पानी छिड़का। मैंने एक-एक पौधे को गले लगाकर प्रेम किया, लेकिन न मालूम कैसे पागल पौधे हैं, सब कुम्हला गए हैं सब सूख गए हैं।
यूं तो माँ की आंखों में बगिया को देखकर आंसू थे, लेकिन मेरी हालत देख कर वह हंसने लगी और उसने कहा, ''पागल फूलों के प्राण फूलों मे नहीं होते, उनकी जड़ों मेँ होते हैं जो दिखाई नहीं पड़ती हैं जमीन के नीचे होती है। पानी फूलों को नहीं देना पड़ता है, जड़ों को देना पड़ता है। फिक्र पत्तों की नहीं करनी पड़ती, जड़ों की करनी पड़ती है। पत्तों की लाख फिक्र करे तो भी जडें कुम्हला जाएंगी और पत्ते भी सूख जाएंगे। और जड़ों की थोड़ी-सी फिक्र करे और पत्तों की, फूलों की कोई भी फिक्र न करें, तो भी पत्ते फलते रहेंगे, फूल खिलते रहेंगे, सुगंध उड़ती रहेगी।''
मैंने पूछा, ''लेकिन जड़ कहां है? वह तो दिखायी नहीं पड़ती है!''
...हम सब भी यही पूछते है-जीवन कहां है? वह तो दिखायी नहीं पड़ता है। वह बाहर नहीं छिपा है; वह अपने ही भीतर है-अपनी ही जड़ों में। बाहर जहां दिखाई पड़ता है सब कुछ, वहां पत्ते हैं शाखाएं हैं। भीतर, जहा दिखाई नहीं पड़ता, जहा घोर अंधकार हैं, वहां जड़ें हैं।
दूसरा सूत्र समझ लेना जरूरी है और वह यह कि जीवन बाहर नही, भीतर है : विस्तार बाहर है, प्राण भीतर हैं। फूल बाहर खिलते हैं, जड़ें भीतर हैं। और जडों के संबंध में हम सब भूल गए हैं। माओ पर हम हंसेंगे कि नादान था वह लड़का बहुत लेकिन हम अपने पर नहीं हंसते हैं कि हम जीवन के बगीचे में उतने ही नादान हैं।

...और, अगर आदमी के चेहरे से मुस्कुराहट चली गयी है-और आदमी की शांति खो गई है...और जिंदगी के हृदय में फूल नहीं लगते हैं...और आदमी की जिंदगी में संगीत नहीं बजता है...और आदमी की जिंदगी एक बे-रौनक उदासी हो गयी है, तो फिर हम पूछते हैं कि कितना तो हम संहालते हैं कितने अच्छे मकान बनाते हैं कितने अच्छे रास्ते बनाते हैं कितने अच्छे कपड़े निर्मित करते हैं कितनी अच्छी शिक्षा देते है-सब तो हम करते है लेकिन आदमी फिर भी कुम्हलाता क्यों चला जाता है? यह हम वही पूछते हैं जो उस लड़के ने पूछा था कि मैंन एक-एक पत्ते को सम्हाला, लेकिन फूल?...फूल क्यो कुम्हला गए? पौधे क्यों कुम्हला गए?

आदमी कुम्हला गया है, क्योंकि वह बाहर सम्हालता रहा है। और ध्यान रहे कि जिसको हम भौतिकवादी कहते हैं वे ही केवल बाहर नहीं देखते-जिनको हम अध्यात्मवादी कहते हैं, दुर्भाग्य है कि वे भी बाहर ही देखते हैं और बाहर ही सम्हालते हैं! भौतिकवादी तो बाहर सम्हालेगा, क्योंकि भौतिकवादी मानता है कि ''भीतर-जैसी'' कोई चीज ही नहीं है। भीतर है ही नहीं। भौतिकवादी कहता है, ''भीतर'' कोरा शब्द है। भीतर कुछ भी नहीं है।

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