हालांकि यह बड़ी अजीब बात मालूम पड़ती है, क्योंकि जिसका भी बाहर होता है,
उसका भीतर अनिवार्य रूप से होता है। यह असंभव है कि बाहर ही बाहर हो और भीतर
न हो। अगर भीतर न हो, तो बाहर नहीं हो सकता। अगर एक मकान की बाहर की दीवाल
है, तो उसका भीतर भी होगा। अगर एक पत्थर की बाहर की रूप-रेखा है, तो भीतर भी
कुछ होगा। बाहर की जो रूप-रेखा है, वह भीतर को ही धेरने वाली रूप-रेखा होती
है। बाहर का अर्थ है, भीतर को घेरनेवाला। और अगर भीतर न हो तो बाहर कुछ भी
नहीं हो सकता।
लेकिन भौतिकवादी कहता है कि भीतर कुछ भी नहीं, इसलिए भौतिकवादी को तो क्षमा
भी किया जा सकता है। लेकिन अध्यात्मवादी भी सारी चेष्टा बाहर की करता है, वह
भी कहता है कि ब्रह्मचर्य साधो, वह भी कहता है, अहिंसा साधो; वह भी कहता है,
सत्य साधो; वह भी गुणों को साधने की कोशिश करता है!
अहिंसा ब्रह्मचर्य, प्रेम करुणा, दया-ये सब फूल हैं जड़ इनमें से कोई भी नहीं
है।
जड़ समझ में आ जाए तो अहिंसा अपने-आप पैदा हो जाती है। और अगर जड़ समझ में न
आए तो अहिंसा को हम जिंदगी भर सम्हाले, फिर भी अहिसा पैदा नहीं होती। बल्कि,
अहिंसा के पीछे निरंतर हिंसा खड़ी रहती है। और वे हिसक बेहतर हैं जो बाहर भी
हिंसक हैं; लेकिन वे अहिंसक बहुत खतरनाक हैं जो बाहर तो अहिंसक, लेकिन भीतर
हिंसक हैं।
जिन मुल्को ने अध्यात्म की बहुत बात की है, उन्होंने बाहर से एक थोथा
अध्यात्म पैदा कर लिया है। वैसा जो थोथा अध्यात्म है, वे बाहर के गुणों पर
जोर देता है, अंतस पर नहीं। वह कहता है-सेक्स छोड़ो, ब्रह्मचर्य साधो! वह कहता
है-झूठ को छोड़ो, सत्य को साधो! वह कहता है-कांटे हटा लो और फूल पैदा करो!
लेकिन इसकी बिछल फिक्र नहीं करता है कि फूल जो जड़ों से पैदा होते हैं वे जड़ें
कहां हैं। और अगर जड़ें न सम्हाली जाएं तो फूल पैदा होनेवाले नहीं हैं। हां,
कोई चाहे तो बाजार से कागज के फूल लाकर ऊपर चिपका ले सकता है।
और दुनिया में अध्यात्म के नाम से कागज के फूल चिपकाए हुए लोगों की भीड़ खड़ी
हो गयी है। और ऐसे लोगों के कारण ही भौतिकवाद को दुनिया में नहीं हराया जा पा
रहा है; क्योंकि भौतिकवाद कहता है, यही है तुम्हारा अध्यात्म? ये कागज के
फूल? और इन कागज के फूलों को देखकर भौतिकवादी को लगता है कि नहीं है कुछ
भीतर, सब ऊपर की बातें हैं।
अध्यात्म के नाम से बाहर का आरोपण चल रहा है। कल्टिवेशन और इपोजीशन चल रहा
है। आदमी, भीतर जो सोया हुआ है, उसे जगाने की चिता में नहीं है, बाहर से
अच्छे वस्त्र पहन लेने की चिंता में है! इससे एक अद्भुत धोखा पैदा हो गया है।
दुनिया में या तो भौतिकवादी हैं और या फिर झूठे अध्यात्मवादी हैं। दुनिया में
सच्चा आदमी खोजना मुश्किल होता चला गया है। हां, कभी कोई एकाध सच्चा आदमी
पैदा होता है, लेकिन उस आदमी को भी हम नहीं समझ पाते हैं क्योंकि उसको भी हम
बाहर से देखते हैं कि वह क्या करता है, कैसे चलता है, क्या पहनता है, क्या
खाता है? और इसी आधार पर हम निर्णय लेते हैं कि वह भीतर से क्या होगा! नहीं
फुल के आधार पर जड़ों का पता नहीं चलता है। फुल के रंग देख कर जड़ों का कुछ पता
नहीं चलता है; पत्तों से जड़ों का कुछ भी पता नही चलता है। जड़ें कुछ बात ही और
है। वह आयाम ही दूसरा है; वह डायमेंशन ही दूसरा है लेकिन सब बाहर से सम्हालने
की, वस्त्रों को सम्हालने की लंबी कथा चल रही है। और हमने एक झूठा आदमी पैदा
कर लिया है। इस झूठे आदमी का कोई भी जीवन नहीं होता इसलिए इस झूठे आदमी को हम
थोड़ा समझ ले; क्योंकि यह झूठा आदमी कोई और नहीं होता है, हम सभी झूठे आदमी
हैं।
मैंने सुना है, एक किसान ने एक खेत में एक झूठा आदमी बनाकर खड़ा कर दिया था।
किसान खेतों में झूठा आदमी बनाकर खड़ा कर देते हैं। कुरता पहना देते हैं,
हंडिया लटका देते हैं मुंह बना देते हैं। जंगली जानवर उस झूठे आदमी को देखकर
डर जाते हैं भाग जाते हैं। पक्षी-पक्षी खेत में आने से डरते हैं।
एक दार्शनिक उस झूठे आदमी के पास से निकलता था। तो उस दार्शनिक ने उस झूठे
आदमी से पूछा कि दोस्त! सदा यहीं खड़े रहते हो? धूप आती है, वर्षा आती है,
सर्दियां आती हैं रात आती है, अंधेरा हो जाता है-तुम यहीं खड़े रह जाते हो?
ऊबते नहीं घबराते नही परेशान नहीं होते?
वह झूठा आदमी दार्शनिक की बातें सुनकर बहुत हंसने लगा। उसने कहा, परेशान!
परेशान मैं कभी भी नहीं होता, दूसरों को डराने में बहुत मजा आता है कि वर्षा
भी गुजार देता हूं धूप गुजार देता हूं। रातें भी गुजार देता हूं। दूसरी को
डराने में बहुत मजा आता है; दूसरों को प्रभावित देखकर, भयभीत देखकर बहुत मजा
आता है। 'दूसरों की आंखों में सच्चा दिखायी पड़ता हूं-बस बात खत्म हो जाती है।
पक्षी डरते हैं कि मैं सच्चा आदमी हूं। जंगली जानवर भय खाते हैं कि मैं सच्चा
आदमी हूं। उनकी आंखों मे देखकर कि मैं सच्चा हूं, बहुत आनंद आता हैं।
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