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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


उस झूठे आदमी की बातें सुनकर दार्शनिक ने कहा, ''बड़े आश्चर्य की बात है। तुम जैसा कहते हो, वैसी हालत मेरी भी है। मैं भी दूसरों की आंखों में देखता हूं कि मैं क्या हूं और उसी से आनंद लेता चला जाता हूं!''
तो वह झूठा आदमी हंसने लगा और उसने कहा, ''तब फिर मैं समझ गया कि तुम भी एक झूठे आदमी हो।''
तो वह आदमी की एक पहचान है : वह हमेशा दूसरों की आंखों में देखता है कि दिखायी पड़ता है। उसे इससे मतलब नहीं कि वह क्या है। उसकी सारी चिंता, उसकी सारी चेष्टा यही होती है कि वह दूसरों को कैसा दिखायी पड़ता है; वे जो चारों तरफ देखनेवाले लोग हैं वे उसके बारे में क्या कह रहे हैं।

यह जो बाहर का थोथा अध्यात्म है, यह लोगों की चिंता से पैदा हुआ है। लोग क्या कहते हैं। और जो आदमी यह सोचता है कि लोग क्या कहते हैं, वह आदमी कभी भी जीवन के अनुभव को उपलब्ध नहीं हो सकता है। जो आदमी यह फिक्र करता है कि भीड़ क्या कहती है, और जो भीड़ के हिसाब से अपने व्यक्तित्व को निर्मित करता है, वह आदमी भीतर जो सोए हुए प्राण हैं उसको कभी नहीं जगा पाएगा। वह बाहर से ही वस्त्र ओढ़ लेगा। वह लोगों की आंखों में भला दिखायी पड़ने लगेगा और बात समाप्त हो जाएगी।
हम वैसे दिखायी पड़ रहे हैं जैसे हम नहीं हैं!
हम वैसे दिखायी पड़ रहे हैं जैसे हम कभी भी नहीं थे।
हम वैसे दिखायी पड़ रहे हैं जैसा दिखायी पड़ना सुखद मालूम पड़ता है! लेकिन वैसे हम नहीं हैं।
मैंने सुना है, लंदन के एक फोटोग्राफर ने अपनी दुकान के सामने एक बड़ी
तख्ती लगा रखी थी। और उस तख्ती पर लिख रखा था कि तीन तरह के फोटो यहां उतारे जाते हैं। पहले तरह के फोटो का दाम सिर्फ पांच रुपया है। और वह फोटो ऐसा होगा जैसे आप हैं। दूसरी फोटो का दाम दस रुपया है। और वह ऐसा होगा जैसे आप दिखायी पड़ते हैं। तासरी तरह के फोटो का दाम पंद्रह रुपया है। और वह ऐसा होगा जैसा आप दिखायी पड़ना चाहते हैं।
गांव का एक आदमी आया था फोटो निकलवाने, तो वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। वह पूछने लगा, तीन-तीन तरह के फोटो एक आदमी के कैसे हो सकते हैं! फोटो तो एक ही तरह का होता है। एक ही आदमी के तीन तरह के फोटो कैसे हो सकते हैं? और वह ग्रामीण पूछने लगा कि जब पांच रुपए में फोटो उतर सकता है, तो पंद्रह रुपए में कौन उतरवाता होगा।
फोटोग्राफर बोला, 'नासमझ नादान तू पहला आदमी आया है, जो पहली तरह का फोटो उतरवाने का विचार कर रहा हैं। अब तक पहली तरह का फोटो उतरवानेवाला कोई आदमी नहीं आया। जिसके पास पैसे की कमी होती है, तो वह दूसरी तरह का फोटो उतरवाता है। नहीं तो तीसरी तरह के ही लोग फोटो उतरवाते हैं। पहली तरह का तो कोई उतरवाता ही नहीं। कोई आदमी नहीं चाहता कि वह वैसा दिखायी पड़े, जैसा कि वह है-दूसरों को भी वैसा दिखायी न पड़े, और खुद को भी वैसा दिखायी न पड़े, जैसा कि वह है।

तो फिर भीतर की यात्रा नहीं हो सकती है। क्योंकि भीतर तो सत्य की सीढ़ियों पर चढ़कर ही यात्रा शुरू होती है, असत्य की सीढ़ियों पर चढ़कर नहीं। और ध्यान रहे, अगर बाहर की यात्रा करनी हो, तो असत्य की सीढ़ियों के बिना बाहर कोई यात्रा नहीं हो सकती। और दिल्ली पहुंचना हो तो असत्य की सीढ़ियों पर चढ़े बिना कोई यात्रा नहीं हो सकती है। और भीतर जाना हो, तो सत्य की सीढ़ियों पर चढ़े बिना कोई यात्रा नहीं हो सकता है। अगर बहुत धन के अंबार लगाने हों, तो असत्य की यात्रा के सिवाए कोई यात्रा नहीं हो सकती है। अगर बहुत यश पाना हो, प्रतिष्ठा पानी हो, मित्रता पानी हो, तो असत्य के सिवाय कोई नहीं है।

बाहर की सारी यात्रा की सीढ़ियां असत्य की ईंटों से निर्मित है। और भीतर की यात्रा सत्य की सीढ़ियां चढ़कर करनी पड़ती है।
और इस बात को जानना बहुत कठिन पड़ता है कि 'मैं सच में क्या हूं?' हम सदा उसे दबाते हैं जो हम नहीं हैं! हम शरीर को तो बहुत देखते हैं आइने को सामने रखकर, लेकिन वह जो भीतर है, उसके सामने कभी आइना नहीं रखते। और अगर कोई आइना सामने ले आए तो हम बहुत नाराज हो जाते हैं। किसी के
आइना दिखाने पर हम आइना भी तोड़ देते हैं और उस आदमी का सिर भी तोड़ देते हैं।
कोई भी आदमी भीतर के आदमी को देखने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए। दुनिया में जिन लोगों ने भी हमारे भीतर के असली आदमी को दिखाने की कोशिश की है, उनके साथ हमने वह व्यवहार किया है, जो हम दुश्मन के साथ करते हैं। जीसस को हम सूली पर लटका देते हैं, सुकरात को हम जहर पिला देते हैं। जो भी हमारी असलियत को दिखाने की कोशिश करता है, उससे हम बहुत नाराज हो जाते हैं; क्योंकि वह हमारी नग्नता को उघाड़कर हमारे सामने रख देता है। और हम-हम धीरे-धीरे भूल ही गए हैं कि वस्त्रों के भीतर हम नग्न ही हैं! हम धीरे-धीरे समझने लगे हैं कि हम वस्त्र ही हैं। भीतर एक नंगा आदमी भी है, उसे हम धीरे-धीरे भूल गए है-बिल्कुल भूल गए हैं! उसकी हमे कोई याद नही है, और वही हमारी असलियत है। उस असलियत पर पैर रखे बिना-और जो भी गहरी असलियतें हैं भीतर, उन तक पहुंचा नहीं जा सकता है।
इसलिए दूसरा सूत्र है : 'मैं जैसा हूं उसका साक्षात्कार।'
लेकिन वह हम नहीं करते हैं! हम तो दबा-दबाकर अपनी एक झूठी तस्वीर, एक फाल्स इमेज खडी करने की कोशिश करते हैं!
भीतर हिसा भरी है और आदमी पानी छानकर पिएगा-और कहेगा कि मैं अंहिसक हूं! भीतर हिंसा की आग जल रही है, भीतर सारी दुनिया को मिटा देने का पागलपन है, भीतर विध्वंस है, भीतर वायलेंस है और एक आदमी रात खाना नहीं खाएगा-और सोचेगा कि मैं अहिंसक हूं!
हम सस्ती तरकीब में पहुंच गए हैं कुछ हो जाने की। इतना सस्ता मामला नहीं है। आप क्या खाते हैं क्या पीते है-इससे आप अहिंसक नहीं होते। हां, आप अहिंसक हो जाएंगे तो आपका खाना-पीना जरूर बदल जाएगा। लेकिन खाना-पीना बदल लेने से आप अहिंसक नहीं हो जाते। यह बात जरूर सच है कि आपके भीतर से प्रेम आएगा, तो आपका बाहर का व्यक्तित्व बदल जाएगा। लेकिन बाहर का व्यक्तित्व बदल लेने से भीतर से प्रेम नहीं आता है।

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