उस गाव मे एक मुनि आए हुए थे। वह उनके दर्शन को गया और उनके चरणों में सिर
रखकर बहुत रोया, और उसने कहा, ''मैं इस क्रोध से कैसे छुटकारा पाऊं? क्या
रास्ता है? मैं कैसे इस क्रोध से बचूं?''
मुनि ने कहा, ''तुम संन्यासी हो जाओ। छोड़ दो वह क्रोध, जिसे कल तक पकड़े
थे...।''
लेकिन मजा यह है कि जिसे छोड़ो, वह और भी मजबूती से पकड़ लेता है। लेकिन यह
थोड़ी गहरी बात है, एकदम से समझ में नहीं आती...!
''क्रोध को छोड़ दो; संन्यासी हो जाओ; शांत हो जाओ! अब तो इस क्रोध को छोड़ो!''
वह आदमी संन्यासी हो गया। उसने अपने वस्त्र फेंक दिए और नग्न हो गया! और उसने
कहा, ''मुझे दीक्षा दें, मैं शिष्य हुआ।''
मुनि बहुत हैरान हुए। बहुत लोग उन्होंने देखे थे, पर ऐसा संकल्पवान आदमी नहीं
देखा था, जो इतनी शीघ्रता से संन्यासी हो जाए। उन्होंने कहा, ''तू, तो अद्भुत
है, तेरा संकल्प महान् है। तू इतना तीव्रता से संन्यासी होने को तैयार हो
गया, सब छोड़कर!''
लेकिन, उन्हें भी पता नहीं कि यह भी क्रोध का ही दूसरा रूप है। वह आदमी, जो
कि अपनी पत्नी को क्रोध में आकर एकक्षण में कुएं में धक्का दे सकता है, वह
क्रोध में आकर एकक्षण में नंगा भी खड़ा हो सकता है; संन्यासी भी हो सकता है।
इन दोनों बातों में विरोध नहीं है। यह एक ही क्रोध के दो रूप हैं।
तो वे मुनि बहुत प्रभावित हुए उससे। उन्होंने उसे दीक्षा दे दी और उसका नाम
रख दिया-मुनि शांतिनाथ।
अब वह मुनि शांतिनाथ हो गया। और भी शिष्य थे मुनि के, लेकिन उस शांतिनाथ का
मुकाबला करना बहुत मुश्किल था क्योंकि उतने क्रोध में उनमें से कोई भी नहीं
था। दूसरे शिष्य दिन में अगर एक बार भोजन करते, तो शांतिनाथ दो दिन तक भोजन
ही नहीं करते थे...।
क्रोधी आदमी कुछ भी कर सकता है!
...दूसरे अगर सीधे रास्ते से चलते, तो मुनि शांतिनाथ उल्टे रास्ते, कांटों से
भरे रास्ते पर चलते! दूसरे शिष्य अगर छाया में बैठते, तो मुनि शांतिनाथ धूप
में खड़े रहते! थोड़े ही दिनों में मुनि शांतिनाथ का शरीर सूख गया, कृश हो गया,
काला पड़ गया, पैर में घाव पड़ गए, लेकिन उनकी कीर्ति फैलनी शुरू हो गयी चारों
ओर, कि मुनि शांतिनाथ महान् तपस्वी हैं...।
वह सब क्रोध ही था जो स्वयं पर लौट आया था। वह क्रोध, जो दूसरों पर प्रगट
होता रहा था अब वह अपने पर ही प्रगट हो रहा था।
सौ में से निन्यानबे तपस्वी स्वयं पर लौटे हुए क्रोध का परिणाम होते हैं।
दूसरों को सताने की चेष्टा रूपांतरित होकर खुद को सताने की चेष्टा भी बन सकती
है। दूसरों को भी सताया जा सकता है। और खुद को भी सताया जा सकता है। सताने
में अगर रस हो, तो स्वयं को भी सताया जा सकता है।
...अब उसने दूसरों को सताना बंद कर दिया था, अब वह अपने को ही सता रहा था। और
पहली बार एक नयी घटना घटी थी : कि दूसरों को सताने पर लोग उसका अपमान करते थे
और अब खुद को सताने से लोग उसका सम्मान करने लगे थे! अब लोग उसे महातपस्वी
कहने लगे थे!
मुनि की कीर्ति सब ओर फैलती गयी। जितनी उसकी कीर्ति फैलती गयी, वह अपने को
उतना ही सताने लगा, अपने साथ दुष्टता करने लगा। जितनी उसने स्वयं से दुष्टता
की, उतना ही उसका सम्मान बढ़ता चला गया। दो-चार वर्षों में गुरु से ज्यादा
उसकी प्रतिष्ठा हो गयी।
फिर वह देश की राजधानी में आया...। मुनियों को राजधानी में जाना बहुत जरूरी
होता है। अगर आप मुनियों को देखना चाहते हो, तो हिमालय पर जाने की कोई जरूरत
नहीं है, देश की राजधानी में चले जाइए और वहां सब मुनि और सब संन्यासी अड्डा
जमाए हुए मिल जाएंगे।
...वे मुनि भी राजधानी की तरफ चले। राजधानी में पुराना एक मित्र रहता था। उसे
खबर मिली तो वह बहुत हैरान हुआ कि जो आदमी इतना क्रोधी था वह शांतिनाथ हो
गया! बड़ा समझदार है, जाऊं दर्शन कर आऊं।
वह मित्र दर्शन करने आया। मुनि अपने तख्त पर सवार थे। उन्होंने मित्र को देख
लिया, मित्र को पहचान भी गए-लेकिन जो लोग तख्त पर सवार हो जाते हैं वे कभी
किसी को आसानी से नहीं पहचानते; क्योंकि पुराने दिनों के साथी को पहचानना ठीक
भी नहीं होता। क्योंकि वह भी कभी वैसे ही रहे हैं, इसका पता चल जाता है।
देख लिया पहचाना नहीं। मित्र भी समझ गया कि पहचान तो लिया है, लेकिन फिर भी
पहचानने में गड़बड़ है। आदमी ऊपर चढ़ता ही इसलिए है कि जो पीछे छूट जाए उनको
पहचाने न। और जब बहुत-से लोग उसको पहचानने लगते हैं तो वह सबको पहचानना बंद
कर देता है। पद के शिखर पर चढ़ने का रस ही यही है कि उसे सब पहचानें, लेकिन वह
किसी को नहीं पहचाने।
...मित्र पास सरक आया और उसने पूछा कि ''मुनि जी क्या मैं पूछ सकता हूं-आपका
नाम क्या है?''
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