लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

Like this Hindi book 0

संभोग से समाधि की ओर...


राजा ने कहा, ''छः महीने! मैं तो सोचता था, तू दिनभर में ले आएगा।'' उसने कहा, ''दिन दो-दिन में तो दिल्ली में फाइल नहीं सरकती, तो स्वर्ग में क्या इतना आसान है मामला? कोशिश मैं अपनी करूंगा कि जल्दी ले आऊं।''
राजा ने कहा, ''ठीक है।''
दरबारियों ने कहा, ''यह आदमी धोखेबाज मालूम पड़ता है। देवताओं के वस्त्र कभी सुने हैं आपने?''
राजा ने कहा, ''लेकिन धोखा देकर यह जाएगा कहां?''
नंगी तलवारों का पहरा लगा दिया है और उस आदमी को महल में बंद कर दिया है। वह रोज कभी करोड़, कभी दो करोड़ रुपए मांगने लगा। छह महीने में उसने अरबों रुपए मांग लिए। राजा ने भी सोचा, ''कोई फिक्र नहीं है। जाएगा कहां?''
ठीक छह महीने पूरे हुए। वह आदमी एक पेटी लेकर महल के बाहर आ गया। उसने सैनिकों से कहा, ''मैं कपड़े ले आया हूं चलें सम्राट् के पास।''
तब तो शक की कोई बात न रही। सारी राजधानी महल के द्वार पर इकट्ठी हो गयी। दूर-दूर से लोग देखने आ गए थे। दूर-दूर से राजे-महाराजे बुलाए गए थे, सेनापति बुलाए गए थे, बड़े लोग बुलाए गए थे, धनपति बुलाए गए थे। दरबार ऐसा सजा था, जैसा कभी न सजा होगा। वह आदमी पेटी लेकर उपस्थित हुआ, तब राजा की हिम्मत में हिम्मत आयी। अभी तक तो वह डरा हुआ ही था कि अगर बेईमान न हुआ और पागल हुआ, तो भी हम क्या कर सकेंगे! उसने आकर कह दिया कि नहीं मिले, तो भी हम क्या कर लेंगे? लेकिन वह पेटी लेकर गया तो सम्राf को विश्वास हुआ।

उस आदमी ने आकर पेटी रखी और कहा कि, ''महाराज, वस्त्र ले आया हूं। यहां आ जाएं आप, पहने हुए वस्त्र छोड़ दें, और मैं आपको देवताओं के वस्त्र देता हूं उन्हें पहन लें।'' पगड़ी लेकर राजा की उसने अपनी पेटी के भीतर डाल दी और पेटी के भीतर अपना हाथ डालकर बाहर निकाला। हाथ बिछल ही खाली था। उसने कहा, ''यह संभालिए देवताओं की पगड़ी। दिखायी तो पड़ती है न आपको? क्योंकि देवताओं ने चलते वक्त कहा था कि ये कपड़े उन्हीं को दिखायी
पड़ेंगे, जो अपने बाप से पैदा हुए हों।''
पगड़ी तो थी नहीं दिखायी कहां से पड़ती? लेकिन एकदम से दिखायी पड़ने लेगी!

सम्राट् ने कहा, ''क्यों नहीं दिखायी पड़ती, दिखायी पड़ती है! मन में सोचा सम्राट् ने, ''लेकिन मेरा बाप धोखा दे गया है। पगड़ी दिखायी तो नहीं पड़ती है! लेकिन, यह भीतर की बात अब भीतर ही रखनी है।''

दरबारियों ने भी देखा गर्दनें बहुत ऊपर उठायी आंखें तो उनकी भी साथ थी लेकिन पगड़ी दिखायी नहीं देती थी। लेकिन सबको दिखायी पड़ने लगी! कोई यह न समझ ले कि उसे पगड़ी दिखायी नहीं पड़ती है, इसलिए सब दरबारी एक-दूसरे के आगे आ-आकर कहने लगे, जोर-जोर से कहने लगे। कही धीरे से कहा और किसी को शक हो गया कि यह आदमी धीरे बोल रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं है कि इसको पगड़ी नहीं दिखायी पड़ती है। इसलिए सब दरबारी आगे बढ़कर कहने लगे, ''महाराज ऐसी पगड़ी तो कभी देखी नहीं थी!''

सम्राट ने सोचा कि सब दरबारियों को दिखायी पड़ती है, लेकिन मुझे क्यों नहीं दिखायी पड़ती?'' क्या मैं अपने...?''
...फिर हरेक ने यही सोचा कि सबको दिखायी पड़ती है, लेकिन मुझे क्यों...क्या मैं अपने बाप...?''
सम्राट ने पगड़ी पहन ली, कोट पहन लिया जो नहीं था। कमीज पहन ली, जो नहीं थी। फिर धोती भी निकल गयी। फिर आखिरी वस्त्र निकलने की नौबत आ गयी। तब राजा घबड़ाया कि कहीं कुछ धोखा तो नहीं है? सम्राट् डरने लगा। तब उस आदमी ने कहा, ''डरिए मत महाराज, नहीं तो लोगों को शक हो जाएगा। जल्दी से आखिरी वस्त्र भी निकाल दीजिए..!''
भीड़ की यात्रा बड़ी खतरनाक है। पहले कदम पर कोई रुक जाए तो रुक जाए बाद में रुकना बहुत मुश्किल हो जाता है।
...अब सम्राट् ने भी सोचा, ''इतनी दूर चले ही आए आधे नंगे हो ही गए अब जो होगा होगा।'' सम्राट् ने हिम्मत करके आखिरी कपड़ा भी निकाल दिया। लेकिन सारा दरबार कह रहा था, ''महाराज धन्य हैं अद्भुत वस्त्र हैं दिव्य वस्त्र हैं। इसलिए सम्राट् को हिम्मत भी थी कि कोई फिक्र नहीं नगापन तो सिर्फ मुझे ही पता चल रहा है। तो अपना नंगापन अपने को पता रहता ही है। उसमें तो कोई हर्जा भी नहीं है ज्यादा। लेकिन उस बेईमान आदमी ने जो यह वस्त्र लाया था देवताओं के...। 

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book