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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


इसलिए दोस्त कोई भी चुन लेना दुश्मन थोड़ा सोच-विचार से चुनना चाहिए। क्योंकि उसके चौबीस घंटे साथ रहना पड़ेगा। दोस्त कोई भी चल जाता है; ऐरा-गैरा-क, ख, ग-कोई भी चल जाता है; लेकिन दुश्मन? दुश्मन के साथ हमेशा रहना पड़ता है।
और तीसरे सूत्र में मैंने कहा कि दमन भूल कर भी मत करना। क्योंकि दमन अच्छी चीजों का तो कोई करता नहीं है, दमन करता है बुरी चीजों का। और जिनका दमन करता है, जिनसे लड़ता है, उन्हीं के साथ उसका गठबंधन हो जाता है, उन्ही के साथ फेरा पड़ जाता है। जिस चीज को हम दबाते हैं उसी से जकड़ जाते हैं।
मैंने सुना है, एक होटल में एक रात के लिए एक आदमी ठहरने के लिए आया। लेकिन होटल के मैनेजर ने उसे कहा, ''यहां जगह नहीं है, आप कहीं और चले जाएं। एक ही कमरा खाली है और वह हम देना नहीं चाहते। ऊपर का कमरा खाली है और नीचे के कमरे में एक सज्जन ठहरे हुए हैं। अगर जरा भी खड़बड़ हो जाए आवाज हो जाए या कोई जोर से चल दे तो झगड़ा हो जाता है। पहले भी ऐसा हो चुका है। तो जब से पिछले मेहमान ने कमरा खाली किया है, हमने तय किया है, कि अब ऊपर का कमरा खाली ही रखेंगे, जब तक कि नीचे के सज्जन विदा नहीं हो जाते...।''
कुछ सज्जन ऐसे होते हैं जिनके आने की राह देखनी पड़ती है और कुछ ऐसे होते हैं जिनके जाने की भी राह देखनी होती है। और दूसरी तरह के ही सज्जन ज्यादा होते हैं; पहली तरह के सज्जन तो बहुत कम ही होते हैं जिनके आने की राह देखनी पड़ती है।
...उस मैनेजर ने कहा, ''क्षमा करिए, हम उनके जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जब वे चले जाएं तब आप आइए।''
उस आदमी ने कहा, ''आप हैरान न हो घबडाएं न, मैं सिर्फ दो-चार घंटे रात सोऊंगा। दिनभर बाजार में काम करूंगा, रात को दो बजे लौटूंगा और सो जाऊंगा। सुबह छः बजे उठकर मुझे गाड़ी पकड़नी है। नींद में उन सज्जन से कोई झगड़ा होगा इसकी आशा नहीं है। नींद में चलने की मेरी आदत भी नहीं है। कोई गड़बड़ नहीं होगी, मैं आराम से सो जाऊंगा, आप फिक्र न करें।''
मैनेजर मान गया। वह आदमी दो बजे लौटा थका-मादा-दिन भर के काम के बाद। बिस्तर पर बैठकर उसने जूता खोलकर नीचे पटका। तब उसे खयाल आया, 'कहीं नीचे के मेहमान की जूते की आवाज से नींद न खुल जाए?' दूसरा जूता धीरे से निकालकर रखकर वह सो गया।
घंटे भर बाद नीचे के सज्जन ने दस्तक दी. ''महाशय, दरवाजा खोलिए!'' वह बहुत हैरान हुआ कि 'घंटे भर तो मेरी नींद भी हो चुकी, अब क्या गलती हो गयी होगी?' दरवाजा उसने खोला डरते हुए।
उस सज्जन ने पूछा कि ''दूसरा जूता कहां है? मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया है। जब पहला जूता गिरा, तो मैं समझा कि ऊपर के महाशय आ गए हैं। फिर दूसरा जूता गिरा ही नहीं! तब से मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं कि दूसरा जूता अब गिरा अब गिरा। फिर मैंने अपने मन को समझाया कि मुझे किसी के जूते से क्या लेना-देना? हटाओ, कुछ भी हो, मुझे क्या मतलब? लेकिन, जितना मैंने हटाने की कोशिश की, उतना ही दूसरा जूता मेरी आंखों के सामने घूमने लगा। आंख बंद करता हूं तो जूता दिखाई पड़ता है, आंख खोलता हूं तो जूता दिखाई पड़ता है! बड़ी बेचैनी हो गयी है। नींद बड़ी मुश्किल हो गयी है। जूता भीतर धक्के देने लगा है। बहुत समझाया मन को कि तू भी कैसा पागल है! किसी के जूते से अपने को क्या मतलब चाहे एक जुता पहनकर सोया हो चाहे एक भी न पहनकर सोया हो लेकिन जितना मैने मन को समझाया दबाया लड़ा-उतना ही वह जूता बड़ा होता गया और तेजी से मन में घूमने लगा...!''
अपनी-अपनी खोपड़ी की तलाश अगर आदमी करे, तो पाएगा कि दूसरे के जूते वहां घूम रहे हैं जिनसे कुछ लेना-देना नहीं है।
...उन सज्जन ने कहा, ''क्षमा कीजिए! इसलिए मैं पूछने आया हूं, ताकि पता चल जाए तो मैं सो जाऊं शांति से, और झगड़ा बंद हो जाए।''
जो उस आदमी के साथ हुआ, वही सबके साथ होता है।
सप्रेसिव माइंड, दमन करने वाला चित्त हमेशा व्यर्थ की बातों में उलझ जाता है।
सेक्स को दबाओ-और चौबीस घंटे सेक्स का जूता सिर पर घूमने लगेगा। क्रोध को दबाओ-और चौबीस घंटे क्रोध प्राणों में घुसकर चक्कर काटने लगेगा। और एक तरफ से दबाओ, तो दूसरी तरफ से निकलने की चेष्टा शुरू हो जाएगी, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में ऊर्जा है, एनर्जी है। आप दबाओगे एनर्जी को 

तो वह कहीं से निकलेगी? एक झरने को आप इधर रोक दो, तो वह दूसरी तरफ से फूट कर बहने लगेगा। उधर से दबाओ, तो तीसरी तरफ से बहने लगेगा।
एक आदमी एक दफ्तर में नौकरी करता था। एक दिन उसके मालिक ने उसे कुछ बेहूदी बातें कह दीं...।
और मालिक तो बेहूदी बातें कहते हैं; नहीं तो मालिक होने का मजा ही खत्म हो जाए। मजा क्या है मालिक होने में...? किसी से बेहूदी बातें कह सकते हो, यही मजा है। और नौकर यह भी नहीं कह सकता कि आप बेहूदी बातें कर रहे हैं। और फिर मालिक बेहूदी बातें कहे या न कहे, नौकर को मालिक की सब बातें बेहूदी मालूम पड़ती हैं। नौकर होना भी बेहूदगी है; क्योंकि मालिक जो भी कहे, नौकर को बेहूदगी ही मालूम पड़ती है। मालिक जब जोर से बोलता है, क्रोध की बातें कहता है, तो भी नौकर को खड़े होकर मुस्कुराना पड़ता है। भीतर आग लगी होती है कि गर्दन दबा दें...।
ऐसा कौन नौकर होगा, जिसको मालिक की गर्दन दबाने का खयाल न आता हो? आता है, जरूर आता है। आना भी चाहिए नहीं तो दुनिया बदलेगी भी नहीं! 

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