कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 92 पाठक हैं |
जहां मरु-ज्वाला धधकती
चातकी कन को तरसती
उन्हीं जीवन-घाटियों की
मैं सरस बरसात रे मन!
पवन की प्राचीर में रुक
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व-दिन की
मैं कुसुम-ऋतु-रात रे मन!
चिर निराशा नीरधर से,
प्रतिच्छायित अश्रु-सर
में,
मधुप-मुखर मरंद-मुकुलित,
मैं सजल जलजात रे मन!''
उस स्वर-लहरी के अक्षर सब
संजीवन रस बने धुले,
उधर प्रभात हुआ प्राची
में मनु के मुदित नयन खुले।
श्रद्धा का अवलंब मिला
फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,
मनु उठ बैठे गद्गद होकर
बोले कुछ अनुराग भरे।
आंखें प्रिय आंखों में,
डूबे अरुण अधर थे रस में,
हृदय काल्पनिक-विजय में
सुखी चेतनता नस-नस में।
छल-वाणी की वह प्रवंचना
हृदयों की शिशुता को,
खेल खिलाती भुलवाती जो जो
उस निर्मल विभुता को,
जीवन का उद्देश्य, लक्ष्य
की प्रगति दिशा की पल में
अपने मधुर इंगित से बदल
सके जो छल में-
वही शक्ति अवलंब मनोहर
निज मनु को थी देती,
जो अपने अभिनय से मन को
सुख में उलझा लेती।
|