कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 92 पाठक हैं |
ये श्वापद से हिंसक अधीर,
कोमल शावक वह बाल वीर,
सुनता था वह वाणी शीतल,
कितना दुलार कितना
निर्मल!
कैसा कठोर है तब हृतल!
वह इड़ा कर गयी फिर भी छल
तुम बनी रही हो अभी धीर
छूट गया हाथ से आह तीर।''
''प्रिय अब तक हो इतने
सशंक,
देकर कुछ कोई नहीं रंक,
यह विनिमय है या
परिवर्तन,
बन रहा तुम्हारा ऋण अब
धन,
अपराध तुम्हारा वह बंधन-
लो बना मुक्ति, अब छोड़
स्वजन-
निर्वासित तुम, क्यों लगे
डंक?
दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट
अंक।''
''तुम देवि! आह कितनी
उदार,
यह मातृमूर्ति निर्विकार,
हे सर्वमंगले! तुम महती,
सबका दुख अपने पर सहती,
कल्याणमयी वाणी कहती,
तुम क्षमा निलय में हो
रहती,
मैं भूला हूं तुमको निहार-
नारी सा ही, वह लघु विचार।
|