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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700
आईएसबीएन :9781613014295

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यात्री दल ने रुक देखा मानस का दृश्य निराला,
खग-मृग को अति सुखदायक छोटा-सा जगत उजाला।

मरकत की वेदी पर ज्यों रक्खा हीरे का पानी,
छोटा सा मुकुट प्रकृति या सोयी राका रानी।

दिनकर गिरी के पीछे अब हिमकर था चढ़ा गगन में,
कैलास प्रदोष-प्रभा में स्थिर बैठा किसी लगन में।

संध्या समीप आयी थी उस सर के बल्कल-वसना,
तारों से अलक गूंथी थी पहने कदंब की रशना।

खग कुल किलकार रहे थे कलहंस कर रहे कलरव,
किन्नरियां बनीं प्रतिध्वनि लेती थीं तानें अभिनव।

मनु बैठे ध्यान-निरत थे उस निर्मल मानस-तट में,
सुमनों की अंजलि भर कर श्रद्धा थी खड़ी निकट में।

श्रद्धा ने सुमन बिखेरा शत-शत मधुपों का गुंजन,
भर उठा मनोहर नभ में मनु तन्मय बैठे उन्मन।

पहचान लिया था सब ने फिर क्या न प्रणति में झुकते।

तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घंटा-ध्वनि करता,
बढ़ चला इड़ा के पीछे मानव भी था डग भरता।

हां इड़ा आज भूली थी पर क्षमा न चाह रही थी,
वह दृश्य देखने को निज दृग-युगल सराह रही थी।

चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित वह चेतन-पुरुष-पुरातन,
निज-शक्ति-तरंगायित था आनंद-अंबु-निधि शोभन।

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