कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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भर रहा अंक श्रद्धा का
मानव उसको अपना कर,
था इड़ा-शीश चरणों पर वह
पुलक भरी गद्गद स्वर-
बोली-''मैं धन्य हुई हूं
जो यहां भूलकर आयी,
हे देवि! तुम्हारी ममता
बस मुझे खींचती लायी।
भगवति, समझी मैं! सचमुच
कुछ भी न समझ थी मुझको,
सब को ही भुला रही थी
अभ्यास यही था मुझको।
हम एक कुटुंब बना कर
यात्रा करने हैं आये,
सुन कर यह दिव्य-तपोवन
जिसमें सब अघ छूट जाये।''
मनु ने कुछ-कुछ मुसक्या
कर कैलाश ओर दिखलाया,
बोले, ''देखो कि यहां पर
कोई भी नहीं पराया।
हम अन्य न और कुटुम्बी हम
केवल एक हमीं हैं
तुम सब मेरे अवयव हो
जिसमें कुछ नहीं कमी है।
शापित न यहां है कोई
तापित पापी न यहां है,
जीवन-वसुधा समतल है समरम
है जो कि जहां है।
चेतन समुद्र में जीवन
लहरों सा विखर पडा है
कुछ छाप व्यक्तिगत अपना
निर्मित आकार खडा है।
इस ज्योत्सना के जलनिधि
में बुदबुद् सा रूप वनाये,
नक्षत्र दिखाई देते अपनी
आभा चमकाये।
वैसे अभेद-सागर में
प्राणों का सृष्टि-क्रम है,
सब में घुल-मिल कर रसमय
रहता यह भाव चरम है।
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