उपन्यास >> खजाने का रहस्य खजाने का रहस्यकन्हैयालाल
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भारत के विभिन्न ध्वंसावशेषों, पहाड़ों व टीलों के गर्भ में अनेकों रहस्यमय खजाने दबे-छिपे पड़े हैं। इसी प्रकार के खजानों के रहस्य
थोड़ी देर और परिश्रम करने पर उन्हें जो देवी की प्रतिमा मिली उसे देखकर डा. साहब की आशा निराशा में बदल गयी। दीर्घ-स्वांस खींचकर बे बोले- 'माधवजी, चिड़िया उड़ गई।'
'क्या मतलब सर!' आश्चर्य से चौंका माधव।
'मेरे अध्ययन के अनुसार तो यहाँ देवी की बिशाल और भव्य प्रतिमा होनी चाहिए थी, किन्तु ऐसा लगता है कि किसी मूर्ति-चोर की गिद्ध- दृष्टि हम से पहले ही यहाँ पहुँच चुकी है। यह मूर्ति तो अत्यन्त सामान्य पत्थर की बनी हुई है।'
'फिर भी इतनी दूर चलकर आये हैं तो, हमें कुछ प्रयास तो करना ही चाहिए।' माधव ने कहा।
'वह तो करेंगे ही।' बुझे-से मन से डा. साहब ने माधव से कुदाल आदि लाने को कहा।
ज्यों-ज्यों खुदाई गहरी होती जा रही थी, त्यों-त्यों ही डा. साहब 'की आँखों में खुशी की चमक बढ़ती जा रही थी। उनके चेहरे के भावों को पढ़कर माधव बोला- 'सर! कुछ आशा बाकी है शायद?' 'कुछ नहीं, पूरी आशा है, आप उत्साह से खोदते रहिए। मूर्तिचोर का लक्ष्य केवल मूर्ति चुराना ही रहा था, अत: उस काम को तो वह कर ले गया और शेष काम आपके और मेरे लिए छोड़ गया।' यों कहकर डा. साहब ने हँसी का जोरदार ठहाका लगाया। माधव ने अपने मस्तक पर आया हुआ पसीना तर्जनी अंगुली से पोंछते हुए डा. साहब के ठहाके में ठहाका मिला दिया। निर्जन पहाड़ी की गूँज से ऐसा लगने लगा-मानो उनकी हँसी में वह भी शामिल हो गयी है।
कुदाल का एक हाथ जरा गहरा पड़ा तो उससे एक बड़ा-सा पत्थर अधर हो गया। उस पत्थर को हिलते देखा तो डा. साहब को भी जोश आ गया। उन्होंने भी माधव को सहारा दिया तो पत्थर उलटकर नीचे गिर गया। उस पत्थर का गिरना था कि डा. साहब खुशी के मारे एकदम चहक उठे। उनके मानचित्र के मुताविक लोहे की चद्दर के दो काले सन्दूक निकल आये थे।
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