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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी


तेईसवां बयान

बालेसिंह के जख्म पर जर्राहों ने दवा लगाकर पट्टी बांधी मगर वह आठ पहर तक बेहोश पड़ा रहा, इसके बाद होश में आया तरह-तरह की बातें सोचने लगा। वह अपने दिल में बहुत शर्मिन्दा था कि केवल थोड़े से सिपाहियों को साथ लेकर रनबीरसिंह ने उसे नीचा दिखाया और देखते-देखते महारानी कुसुम कुमारी को बचा ले गया। यद्यपि उसके दिल ने कह दिया था कि अब रनबीरसिंह के मुकाबले में तेरी जीत न होगी और तुझे हर तरह से नीचा देखकर यहां से लौट जाना पड़ेगा मगर वह अपने क्रोध को किसी तरह दबा न सकता था और बहुत ही खिजलाया हुआ था। इस समय जब कि उसमें उठने की सामर्थ्य बिलकुल न थी वह कर ही क्या सकता था? हां, चारों तरफ ध्यान दौड़ाने पर उसे कालिन्दी का खयाल आया जिसे हिफाजत से रखने के लिए अपने आदमियों के सुपुर्द कर चुका था। उसने कालिन्दी को अपने सामने तलब किया और बिना कुछ कहे या पूछे एक आदमी को हुक्म दिया कि इस औरत की नाक काट लो और छोड़ दो, जहां जी आवे चली जाए।

इसके बाद वालेसिंह क्या करेगा और अपना क्रोध किस पर निकालेगा सो जिक्र छोड़ कर हम इस जगह कालिन्दी का कुछ हाल लिखते हैं।

कालिन्दी जिसे अपने रूप पर इतना घमंड था आज नकटी होकर कुरूपा स्त्रियों की पंक्ति में बैठने योग्य हो गई। उसे बहुत ताज्जुब था कि बालेसिंह ने मेरे साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया, मगर वह इसका सबब कुछ पूछ न सकी और उस समय जान बचाकर वहां से निकल जाना ही उसने उचित जाना। इस समय जब कि उसे नकटी करके बालेसिंह ने निकाल दिया था, रात लगभग दो घंटे के जा चुकी थी। रोती और अपने किए पर अफसोस करती वह नमकहराम औरत नाक पर कपड़ा रखे बालेसिंह के लश्कर से बाहर निकली और सीधी पूरब की तरफ चल निकली। इस समय कोई उसका यार और मददगार न था, बल्कि यों कहना चाहिए कि उसे खाने तक का ठिकाना न था, क्योंकि वह अपने जेवर भी चोर दरवाजे के पहरे वालों को रिश्वत में दे चुकी थी और अब केवल एक मानिक की अंगूठी उसकी उंगली में रह गई थी। वह केवल एक मामूली साड़ी पहने हुए थी, जो मर्दानी पोशाक बदलने के लिए कमबख्त जसवंत ने उसे दी थी और असल में वह जसवंत की ही धोती थी।

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