उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीरसिंह ने दूर ही से देखा कि उस मकान के रहने वाले इकट्ठे होकर हमारी तरफ आ रहे हैं और उनके आगे-आगे एक आदमी जो हर तरह से सरदार मालूम होता है हाथ जोड़े हुए चला आ रहा है। जब वह सरदार रनबीरसिंह के पास पहुंचा तो दण्डवत करने के लिए जमीन पर लेट गया और उसकी देखा-देखी उसके साथियों ने भी यही किया, मगर उस सरदार को देखते ही रनबीरसिंह का कलेजा कांप गया और उनके चेहरे पर डर और तरद्दुद की निशानी दौड़ गई जिसे यद्यपि उन्होंने बड़ी मुश्किल और होशियारी से उन लोगों के उठने के पहले दूर कर दिया मगर कलेजे की धड़कन कुछ-कुछ रह ही गई, जिसे उद्योग करने पर भी दूर न कर सके, हां, इतनी चालाकी अवश्य की कि बैठ गए।
हम नहीं कह सकते कि उस सरदार से रनबीरसिंह के इतना डरने का क्या कारण था। क्या रनबीरसिंह उसे पहले कभी देख चुके थे। या उसके हाथों कुछ तकलीफ उठा चुके थे। या वे इस बात को नहीं जानते थे कि इस जगह हम किसी ऐसे आदमी को देखेंगे जिसके देखने की आशा न थी। या उन बाबाजी ने इस सरदार के बारे में कुछ परिचय दिया था जिसकी बदौलत यहां तक आए हैं, या और कोई सबब है सो तो वही जानें, मगर यह अवस्था उनकी ज्यादे देर तक न रही बल्कि तुरन्त ही दूसरी अवस्था के साथ बदल गई, अर्थात् जब सरदार हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया तो डर की जगह गुस्से ने अपना दखल जमा लिया और रनबीरसिंह के चेहरे पर वे निशानियां दिखाई देने लगीं जो दुश्मन से बदला लेने के समय बहादुर सिपाही के चेहरे पर दिखाई देती है। यद्यपि रनबीरसिंह ने इस अवस्था को भी बड़ी होशियारी के साथ दबाया तथापि माथे के बल और आंखों की लाली पर सरदार की निगाह पड़ ही गई और उसने बड़े ताज्जुब में आकर रनबीरसिंह से पूछा ‘‘क्या गुरु महाराज मुझ पर कुछ क्रोधित हैं?’’
रनबीर–(जमीन की तरफ देखकर) हां।
सरदार–क्यों।
रनबीर–इसलिए कि तुमने कई काम नियम और धर्म के विरुद्ध किए हैं।
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