उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
यह एक साधारण-सी बात थी जो रनबीरसिंह ने सरदार से कही, और ऐसी बातें हर एक से कहकर उसका जी खुटके में डाला जा सकता है। क्योंकि दुनिया में कोई मनुष्य ऐसा न होगा जिससे नियम तथा धर्म के विरुद्ध कोई-न-कोई काम न हो गया हो, फिर ऐसे नालायकों से जिनका कि दिन और रात बुरे कामों में ही बीतता हो। यह रनबीरसिंह की केवल चालाकी थी, सो भी इसलिए कि उनके हाव-भाव को देखकर सरदार के दिल में किसी दूसरे प्रकार का खटका न पैदा हो। मगर सरदार ने उसकी बात सुन सिर नीचा करके कुछ सोचा और कहा, ‘‘ठीक है, परन्तु आशा है गुरु महाराज उस अपराध को क्षमा करेंगे।’’
रनबीर–(मुसकुराकर) सतगुरु देवदत्त से पूछकर तुम्हारा अपराध क्षमा किया जाएगा परन्तु तुम लोगों को कुछ प्रायश्चित करना होगा।
सरदार–आज्ञानुसार करने के लिए मैं तैयार हूं।
रनबीर–अच्छा इस समय तुम लोग जाओ, अपना-अपना काम करो कल संध्या को देखा जाएगा।
सरदार–(हाथ जोड़कर) गुरु महाराज भी मकान के अन्दर पधारें जिसमे हम लोग सेवा करके जन्म कृतार्थ करें।
रनबीर–आज हम (हाथ का इशारा करके) उस पेड़ के नीचे दिन भर और मकान के अन्दर रातभर उपासना करेंगे, इस बीच में बिना बुलाए मेरे पास कोई न आवे, कल देखा जाएगा। अहा! तू ही तो है सतगुरु की पूजा के लिए ग्यारह फल भेजो, बस जाओ। अहा! तू ही तो है! अहा! तू ही तो है!!
इस मकान के चारों तरफ की जमीन बहुत ही साफ-सुथरी और जगह-जगह कुदरती फूल-बूटों से बहुत ही भला मालूम देता था चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ थे जिनमें से पानी के कई झरने गिर रहे थे जो नीचे आकर एक हो गए थे और दक्षिण तरफ ढालवी जमीन होने के कारण बहकर एक पहाड़ी के नीचे चले गए थे। रनबीरसिंह एक झरने के किनारे सुन्दर छाया देखकर बैठ गए और आंखें बन्द कर सोच विचार में दिन बिताने लगे। थोड़ी देर बाद एक आदमी ग्यारह फल लेकर आया और उनके पास रख कर चला गया।
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