उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
बत्तीसवां बयान
आज कुसुम कुमारी को आश्चर्य, उत्कंठा और प्रसन्नता ने इस तरह घेर लिया है कि उसकी आंखों में निद्रादेवी अपना प्रभाव नहीं जमा सकतीं। आधी रात के लगभग बीत चुकी है मगर वह अभी तक अपने कमरे में बैठी हुई बीरसेन और दीवान साहब के लौट आने की बाट देख रही है और खबर लेने के लिए बार-बार लौंडियों को बाहर भेजती है। इसी अवस्था में एक लौ़ड़ी दौड़ती और हांफती हुई कमरे के अन्दर आई और बोली, ‘‘महाराज यहां पहुंच गए। आपके पास बीरसेन और दीवान साहब को लिए हुए आ रहे हैं!!’’
इतना सुनते ही कुसुम कुमारी घबराकर उठ खड़ी हुई और खूंटी से लटकती हुई एक चादर उतार और अच्छी तरह ओढ़कर दरवाजे की तरफ लपकी। कमरे से बाहर निकल कर दालान में पहुंची ही थी कि महाराज के दर्शन हुए। कुसुम दौड़कर महाराज के पैरों पर गिर पड़ी और उसकी आंखों से आंसू की धारा बह चली।
राजा नारायणदत्त को कुसुम कुमारी पहले भी कई दफे देख चुकी थी और उन्हें अच्छी तरह पहचानती भी थी क्योंकि आवश्यकता पड़ने पर वे कई दफे कुसुम कुमारी के पास आ चुके थे मगर यह हाल रनबीरसिंह को मालूम न था। दालान में रोशनी बखूबी हो रही थी जिसके सबब से महाराज के प्रतापी चेहरे का हर एक हिस्सा साफ-साफ दिखाई दे रहा था।
इस समय महाराज के नेत्र भी अश्रुपूर्ण थे। उन्होंने बड़े प्यार से कुसुम कुमारी को उठाया और उसका सर अपनी छाती से लगा आशीर्वाद के तौर पर कहा, ‘‘बेटी! ईश्वर तुझे सदैव प्रसन्न रखे और तेरी अभिलाषा पूरी हो।’’
कुसुम–(अपने कमरे की तरफ इशारा करके) कमरे में चलिए।
राजा–नहीं, मैं इस कमरे में न जाऊंगा बल्कि उस चित्र वाले कमरे में डेरा डालूंगा जिसमें अपने प्यारे लड़के रनबीर और उसी के साथ ही साथ अपने एक सच्चे मित्र से मिलने की आशा है।
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