उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
इस जगह हमें यह भी कह देना आवश्यक है कि राजा इन्द्रनाथ के पिता और कुबेरसिंह के पिता भी आपस में बड़े मित्र थे और प्रायः मिला-जुला करते थे। जब दोनों राजाओं ने उन डाकुओं का हाल सुना और डाकुओं ने भी अपना दोष स्वीकार कर लिया तो राजा इन्द्रनाथ के पिता को उस डाकू लड़के के जीवट पर बड़ा ही आश्चर्य हुआ। तीनों डाकुओं को तो प्राणदण्ड की आज्ञा दे दी और उस लड़के के विषय में अपने मित्र कुबेरसिंह के पिता से राय ली। कुबेरसिंह के पिता ने कहा कि जब यह लड़का चौदह वर्ष की उम्र में इतना दिलेर और निडर है तो भविष्य में बड़ा ही शैतान और खूनी निकलेगा और सिवाय डाकूपन के कोई दूसरा काम न करेगा अतएव इस लड़के को भी प्राणदण्ड ही देना चाहिए, छोड़ देने में भलाई की आशा नहीं हो सकती।
यह विचार जब उस डाकू सरदार ने सुना जिसका वह लड़का था, तो वह बड़े जोर से चिल्लाया और बोला, ‘‘महाराज! हम लोगों को प्राणदण्ड की आज्ञा हो चुकी है, खैर, कोई चिन्ता नहीं, हम लोग अपनी जिन्दगी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐशोआराम में बिता चुके हैं किसी बात की हवस बाकी नहीं है, मगर इस बच्चे ने अभी दुनिया का कुछ भी नहीं देखा है अतएव आप कृपा कर इसे छोड़ दें, हम इस लड़के को कसम देकर कह देते हैं कि भविष्य के लिए यह डाकूवृत्ति को छोड़ दे और कोई दूसरा रोजगार करके जीवन निर्वाह करे।’’
डाकू सरदार ने बहुत कुछ कहा मगर महाराज ने कुछ भी न सुना और उस लड़के को भी फांसी की आज्ञा दे दी। बस उसी दिन से डाकुओं के साथ दुश्मनी की जड़ पैदा हुई और उन चारों के संगी-साथी डाकुओं ने उत्पात मचाना आरम्भ किया। दोनों राजाओं को भी इस बात कि जिद्द हो गई कि जहां तक बन पड़े खोज-खोज के डाकुओं को मारना और उनका नामनिशान मिटाना चाहिए। उस जमाने में डाकुओं की बड़ी तरक्की हो रही थी और भारतवर्ष में चारों तरफ वे लोग उत्पात मचा रहे थे।
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