उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
धीरे-धीरे बदनसीबी के तीस दिन बीत गए और दस दिन बाकी रहे तब इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह दोनों मित्रों ने विचार किया कि आजकल डाकुओं से बड़ी लागडांट चल रही है और डाकू लोग भी दोनों राजाओं को मार डालने की फिक्र में लगे हुए हैं, ऐसी अवस्था में ज्योंतिष की बात सच हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं, अस्तु कोई ऐसी तरकीब निकालनी चाहिए कि आज से पन्द्रह दिन तक दोनों राजा घर में ही बैठ कर बदनसीबी के दिन बिता दें। कुबेरसिंह की राय हुई कि अपने-अपने पिता को इस बात से होशियार कर देना चाहिए। यद्यपि यह बात इन्द्रनाथ को पसन्द न थी मगर सिवा इसके और कोई तरकीब भी न सूझी, आखिर जैसा कुबेरसिंह ने कहा था वैसा ही किया गया अर्थात् दोनों राजा ज्योतिष के भविष्यत्फल से सचेत कर दिए गए।
यद्यपि दोनों राजा जानते थे कि उनके लड़के ज्योतिष विद्या में होशियार और दक्ष हैं तथापि उन्होंने लड़कों की बात हंसकर उड़ा दी और कहा, हमें इन बातों का विश्वास नहीं है, और यदि हम लड़ाई में मारे ही गए तो हर्ज क्या है? क्षत्रियों का यह धर्म ही है। लाचार हो दोनों मित्र चुप हो रहे और किसी से लड़ाई न होने पावे छिपे-छिपे इसी बात का उद्योग करने लगे।
उनतालीस दिन मजे में बीत गये, चालीसवें दिन बाहर-ही-बाहर राजा इन्द्रनाथ के पिता अपने मित्र से मिलने के लिए तेजगढ़ की तरफ जा रहे थे जब रास्ते में सुना कि उनके मित्र शिकार खेलने के लिए शेरघाटी की तरफ आज ही रवाना हुए हैं। यह सुन इन्द्रनाथ के पिता भी शेरघाटी की तरफ घूम गए और शाम होते-होते बीच में ही उनसे जा मिले। दोनों का डेरा एक जंगल के किनारे पड़ा और वहां हजार बारह सौ आदमियों की भीड़भाड़ हो गई।
पहर रात गई होगी जब उन दोनों को खबर लगी कि कई आदमी जो पोशाक और रंग-ढंग से डाकू मालूम पड़ते हैं इधर-उधर घूमते दिखाई पड़े हैं।
राजा लोगों ने इस बात पर विशेष ध्यान न दिया और अपने आदमियों को होशियार रहने की आज्ञा देकर चुप हो रहे।
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