उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
दो पहर रात से ज्यादे जा चुकी थी जब डाकुओं के एक भारी गिरोह ने उस डेरे पर छापा मारा जिसमें दोनों राजा दो खूबसूरत पलंगड़ियों पर सो रहे थे और चारों तरफ कई आदमी पहरा दे रहे थे। फौजी सिपाही भी वहां जा पहुंचे मगर जान से हाथ धोकर लड़ने वाले डाकुओं की उमंग को रोक न सके। दोनों महाराज भी तलवार लेकर मुस्तैद हो गए और चार-पांच डाकुओं को मारकर खुद भी उसी लड़ाई में मारे गए। इस लड़ाई में बहुत से डाकू मारे गए जिनमें चार-पाँच डाकू ऐसे भी मिले जिनकी जान तो नहीं निकली थी मगर जीने लायक भी न थे, इन्हीं की जुबानी मालूम हुआ कि उस गिरोह का सरदार अनगढ़सिंह नामी उस डाकू का बड़ा भाई था जिसे चौदह वर्ष की अवस्था में प्राणदण्ड दिया गया था।
यह खबर जब इन्द्रनाथ और कुबेरसिंह को लगी तो उन्हें बड़ा ही रंज हुआ यहां तक कि राज कहने की अभिलाषा दोनों के दिल से जाती रही। दोनों ने सोचा कि जब प्रारब्ध का लिखा हुआ मिट ही नहीं सकता और जो कुछ होना है सो होगा तो व्यर्थ की किचकिच में फंसे रहने से क्या मतलब? दो वर्ष तक तो इन्द्रनाथ किसी तरह से अपने पिता की गद्दी पर बैठे रहे, इसके बाद अपने दीवान को राज्य सौंप कर फकीर हो गए, उस समय रनबीरसिंह की उम्र पांच वर्ष की थी और कुसुम कुमारी की ढाई वर्ष की।
राजा इन्द्रनाथ अपनी स्त्री और लड़के को लेकर काशी चले चले गए और उसी जगह श्रीविश्वनाथ जी की आराधना में दिन बिताने लगे। राजा इन्द्रनाथ के राज्य छोड़ने का केवल एक वही सबब न था बल्कि उन्हें कई आपस वालों ने कई दफे जहर देकर मार डालने का उद्योग भी किया था मगर ईश्वर की कृपा से जान बच गई थी इसलिए उन्हें कुछ पहले से भी राज्य से घृणा हो रही थी। राजा कुबेरसिंह ने भी अपने मित्र का साथ देना चाहा मगर इन्द्रनाथ ने कसम देकर उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा कि कुछ दिन और ठहर जाओ उसके बाद जो चाहना सो करना, आखिर राजा कुबेरसिंह ने उनका कहा मान लिया मगर राज्य का काम बेदिली के साथ करने लगे और महीने-दो महीने पर अपने मित्र से अवश्य मिलते रहे।
|