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उपन्यास >> कुसम कुमारी

कुसम कुमारी

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9703
आईएसबीएन :9781613011690

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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी

महारानी के मरने से उनकी रियाया को जितना गम हुआ और वे लोग जिस तरह रोते-पीटते और चिल्लाते थे यह देखकर उस सिपाही को भी बड़ा रंज हुआ। बराबर आंसू बहाता हुआ दूसरे दिन अपने मालिक बालेसिंह के पास पहुंचा।

बालेसिंह जो कई आदमियों के साथ बैठा गप्पे उड़ा रहा था। अपने सिपाही की सूरत देखते ही घबड़ा गया और सोचने लगा कि शायद इसे किसी ने मारा पीटा है या यह कैद हो गया था, किसी तरह छूटकर भाग आया है, मगर पूछने पर जब उसकी जुबानी महारानी के मरने का हाल सुना तब उसकी भी अजीब हालत हो गई। घंटे भर तक सकते की हालत में इस तरह बैठा रहा। जैसे जान निकल गई हो या मिट्टी की मूरत रखी हो, इसके बाद एक ऊंची सांस लेकर उठ खड़ा हुआ और दूसरे कमरे में जा चारपाई पर लेटकर सोचने लगा–

‘हां! जिसके लिए इतना बखेड़ा किया, इतने हैरान और परेशान हुए, बेचारे रनबीरसिंह को व्यर्थ कैद किया, अपनी जान आफत में डाली, वही दुनिया से उठ गई! हाय, अभी तक वह भोली-भाली सूरत आंखों के आगे घूम रही है, वह पहला दिन मानो आज ही है, यही मालूम होता है कि बाग ने मकान की छत पर सहेलियों के साथ बढ़ी हुई इधर-उधर दूर-दूर तक के मैदान की छटा देख रही है। हाय, ऐसे वक्त में पहुंचकर मैंने क्यों उसकी सूरत देखी जो आज इतना रंज और गम उठाना पड़ा और मुफ्त की शर्मिंदगी और बदनामी भी हाथ लगी!!

‘मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरा सिपाही झूठ बोलता हो या वहां महारानी ने इसे रिश्वत देकर अपनी तरफ मिला लिया हो और अपने मरने का हाल कहने के लिए समझा बुझाकर इधर भेद दिया हो? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अगर ब्रह्मा भी मेरे सामने आकर कहें कि यह तुम्हारा सिपाही बेईमान और झूठा है तो भी मैं न मानूंगा, यह मेरा दस पुश्त का नौकर कभी ऐसा नहीं कर सकता, इसके जैसा तो कोई आदमी भी मेरे यहां नहीं है!

‘खैर, जब महारानी मर ही गईं तो फिर क्या किया जाएगा? अब रनबीरसिंह और जसवंतसिंह को कैद में रखना व्यर्थ है, उन्होंने मेरा कोई कसूर नहीं किया है।’

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