उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
कालिंदी–वह झख मारेगा और मुझसे शादी करेगा।
मालती–(ओंठ बिचकाकर) वाह, क्या अनोखा इश्क है!
कालिंदी–बेशक, जब वह मुझे देखना खुशामद करेगा।
मालती–शायद तुमने अपने को महारानी से भी ज्यादे खूबसूरत समझ रखा है!!
कालिंदी–नहीं-नहीं, इस कहने से मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं महारानी से बढ़कर हसीन हूं।
मालती–तब दूसरा कौन मतलब है?
कालिंदी–नहीं-नहीं, इस कहने से मेरा मतलब यह नहीं है कि मैं महारानी से बढ़कर हसीन हूं।
मालती–तब दूसरा कौन मतलब है?
कालिंदी–मैं उसे इस किले के फतह करने की तरकीब बताऊंगी जिसमें सहज में उसका मतलब निकल जाए और लड़ाई दंगे की नौबत न आवे। क्या तब भी वह मुझसे राजी न होगा?
यह सुनते ही मालती का चेहरा जर्द हो गया और बदन के रोंगटे खड़े हो गए। उसकी आंखों में एक अजीब तरह की चमक पैदा हुई। उसने सोचा कि यह कंबख्त तो गजब किया चाहती है, अब महारानी की कुशल नहीं। मगर बड़ी मुश्किल से उसने अपने भाव को रोका और पूछा–
मालती–भला तुम उसकी क्या मदद करोगी और कैसे यह किला फतह करा दोगी?
कालिंदी–मैं खुद उसके पास जाऊंगी और अपने मतलब का वादा कराके समझा दूंगी कि फलानी सुरंग की राह से तुम इस किले में मय फौज के पहुंच सकते हो क्योंकि मैं खूब जानती हूं कि शनीचर के दिन उस सुरंग का दरवाजा बीरसेन के आने की उम्मीद में खुला रहेगा।
अब मालती अपने गम और गुस्से को सम्हाल न सकी और भौं सिकोड़कर बोली–‘‘तब तो तुम इस राज्य ही को गारत किया चाहती हो!’’
कालिंदी–मेरी बला से, राज्य रहे या जाए।
मालती–क्या महारानी पर तुम्हें रहम नहीं आता?
महारानी भी तो एक गैर के लिए जान दे रही है! फिर मैं अपने दोस्त की मदद करूं तो क्या हर्ज है?
मालती–महारानी ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे किसी को दुःख हो, लेकिन तुम्हारी करतूत से तो हजारों घर चौपट होंगे, सो भी एक ऐसे आदमी के लिए जिससे किसी तरह की उम्मीद नहीं।
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