उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
कालिंदी–तुम्हें चाहे उम्मीद न हो पर मुझे तो बहुत कुछ उम्मीद है। मैं सोचे हुए थी कि तुम मेरी मदद करोगी मगर हाय, तुम तो पूरी दुश्मन निकलीं।
मालती–और तुम इस राज्यभर के लिए काल हो गई!
कालिंदी–क्या सचमुच तुम मेरा साथ न दोगी?
मालती–कभी नहीं, जब तुम्हारी बुद्धि यहां तक भ्रष्ट हो गई है तो साथ देना कैसा, मैं इस भेद को खोलकर इस आफत से महारानी को बचाऊंगी?
कालिंदी–आह, लड़कपन से तुम मेरे साथ रहती आई, जो जो मैंने कहा तुमने माना, आज मुझे इस दशा में छोड़ अलग हुआ चाहती हो? क्या तुम कसम खाकर कहती हो कि मेरी मदद न करोगी?
मालती–हां-हां, मैं कसम खाकर कहती हूं कि तुम्हारी खातिर महारानी की जान पर आफत न लाऊंगी, तुम मुझसे किसी तरह की उम्मीद मत रखो। मैं फिर भी कहे देती हूं कि इस काम में तुम्हें कभी खुशी न होगी, पीछे हाथ मल-मल के पछताओगी और कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा। अफसोस, तुम दीवान सुमेरसिंह की इज्जत मिट्टी में मिलाकर क्षत्रिकुल की कलंक बना चाहती हो, तुम्हारे तो मुंह देखने का पाप है सिवाय...
बेचारी मालती कुछ और कहा चाहती थी मगर मौका न मिला। बाघिन की तरह उछलकर कालिंदी उसकी छाती पर चढ़ बैठी और कमर से खंजर निकाल, जो शायद इसी काम के लिए पहले से रख छोड़ा था, यह कहकर उसके कलेजे के पार कर दिया कि–‘‘देखें तुम मेरा भेद क्योंकर खोलती हो!!’’
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