उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
कालिंदी की बातों ने जसवंत को उलझन में डाल दिया, मगर जब मुंह खोलकर पास जा खड़ी हुई तो उसकी हालत बिलकुल बदल गई और उसके दिमाग में किसी दूसरे ही खयाल ने डेरा जमाया।
कंबख्त कालिंदी गजब की खूबसूरत थी, उसको देखते ही अच्छे-अच्छे ईमानदारों के ईमान में फर्क पड़ जाता था, बेईमान जसवंत की क्या हकीकत थी कि उसके लासानी हुस्न को देखे और चुप रह जाए। फौरन उठ खड़ा हुआ, हाथ पकड़कर अपने पास चारपाई पर बैठा लिया, और शमादान की रोशनी में जो इस वक्त खेमे के अंदर जल रहा था उसकी सूरत देखने लगा। कालिंदी के मन की भई, ईश्वर ने बेईमानों की अच्छी जोड़ी मिलाई, दोनों को एक दूसरे के देखने से संतोष नहीं होता था, मगर इसी समय किसी ने खेमे के दरवाजे पर ताली बजाई क्योंकि जब दो आदमी खेमे के अंदर बैठे बातें कर रहे हों तो ऐसे वक्त में किसी सिपाही या गैर की बिना इत्तला अंदर जाने की मजाल न थी।
कालिंदी उसके पास पलंग पर बैठी हुई थी, ऐसे मौके पर वह कब किसी दूसरे को अंदर आने देता! खुद उठकर बाहर गया और देखा कि कई सिपाही एक आदमी की मुश्कें बांधे खड़े हैं।
जसवंत–यह कौन है?
एक सिपाही–यह महारानी का जासूस है, कहीं जा रहा था कि हम लोगों ने गिरफ्तार कर लिया।
जसवंत–किस वक्त और कहां पकड़ा गया?
एक सिपाही–यहां से पांच कोस की दूरी पर कुछ दिन रहते ही यह गिरफ्तार हुआ था, यहां आते-आते बहुत रात हो गई। हुजूर आराम करने चले गए थे इसलिए इत्तिला न कर सके, अब सवेरा होने पर हाजिर किया है।
जसवंत–इसकी तलाशी लो गई या नहीं?
एक सिपाही–जी हां, तलाशी ली गई थी, एक चिट्ठी इसके पास से निकली और कुछ नहीं।
जसवंत–वह चिट्ठी कहां है, लाओ!
सिपाही ने वह चिट्ठी जसवंत के हाथ में ही जिसे पढ़कर वह बहुत ही खुश हुआ। पाठक समझ ही गए होंगे कि यह चिट्ठी वही थी, जो दीवान साहब ने बीरसेन के पास भेजी थी और जिसमें लिखा था कि–‘‘शनीचर के दिन मय फौज के सुरंग की राह तुम किले के अंदर चले आना, दरवाजा खुला रहेगा।’’
‘‘वह सुरंग कहां पर है इसका हाल वह औरत (कालिंदी) जो अभी आई है जानती होगी और वह जरूर मुझसे कह देगी, अब इस किले का फतह करना कोई बड़ी बात नहीं है!’’ यह सोचता हुआ जसवंत फिर खेमे के अंदर चला गया।
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