उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
|
1 पाठकों को प्रिय 266 पाठक हैं |
रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
जसंवत–अगर ऐसा होता तो क्या बात थी, दोनों राज का मालिक मैं बन बैठता! एक बात और है, उसकी फौज में लुटेरे और डाकू बहुत हैं जिनको वह तनखाह नहीं देता, हां, लूट के माल का हिस्सा देता है इसी से तो उसने इतनी बड़ी फौज इकट्ठी कर ली है, नहीं तो यह कोई राजा-महाराजा तो है नहीं! खैर जो भी हो मगर मेरी यह पांच हजार फौज मुससे बहुत खुश है।
कालिंदी–खैर, इस किले को फतह करके तेजगढ़१ के राजा तो कहलाओ फिर बूझा जाएगा।
(१. अब बिहटा के नाम से मशहूर है, पटना से ग्यारह कोस पश्चिम है।)
जसवंत–बस इसी तेजगढ़ के फतह करने की देर है, फिर क्या बालेसिंह की अमलदारी सीतलगढ़२ मेरे हाथ से बच रहेगी!
(२. अब गया जिले में सीतलगढ़ पंडबी के नाम से प्रसिद्ध है।)
कालिंदी–खैर देखा जाएगा, मगर बालेसिंह बड़ा ही चालाक है।
जसवंत–कुछ न पूछो, उसके मन का हाल तो कभी मालूम ही नहीं होता! अच्छा आज रात को मेरे साथ चलकर उस सुरंग का दरवाजा तो दिखा दो।
कालिंदी–बहुत अच्छा, चलिएगा।
इतने ही में बाहर किसी ने ताली बजाई। जसवंत बाहर गया और अपने खास अरदली के एक सिपाही को देखकर पूछा, ‘‘क्या है?’’
सिपाही–सरकार ने अपने अरदली के जवानों को यहां पहरे के लिए भेज दिया है, अब हम लोगों को क्या हुक्म होता है?
जसवंत–यहां हमारे खेमे के पहरे पर अपने जवान भेजे हैं?
सिपाही–जी हां।
जसवंत–(कुछ सोचकर) अच्छा तुम लोग पहरा छोड़ दो मगर इस खेमे के पास ही रहो।
सिपाही–बहुत खूब।
जसवंत फिर खेमे के अंदर गया, कालिंदी ने पूछा, ‘‘क्या बात है?’’
जसवंत–एक नया गुल खिला है।
कालिंदी–वह क्या?
|