उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
जसवंत–बालेसिंह ने अपने अरदली के सिपाही यहां हमारे पहरे पर मुकर्रर किए हैं।
कालिंदी–इसमें जरूर कोई भेद है, तुम कुछ उज्र मत करो।
जसवंत–नहीं-नहीं, उज्र क्यों करने लगा, क्या मैं इतना बेवकूफ हूं? उससे जरा भी इस बारे में कुछ कहूंगा तो चौकन्ना हो जाएगा और उलटा बेईमान बनाएगा, मुझे तो इस समय अपना काम निकालना है।
आधी रात के समय कालिंदी ने मर्दानी पोशाक पहनी और जसवंतसिंह के साथ खेमे के बाहर निकली। दोनों आदमी निहायत उम्दे अरबी घोड़ों पर सवार हुए और दक्खिन का कोना लिए हुए पश्चिम की ओर चल पड़े। कालिंदी ने जसवंतसिंह से कहा–
‘‘आपको सुरंग का मुहाना दिखाने ले तो चलती हूं मगर वहां का रास्ता बहुत ही बीहड़ और पेंचदार है, जरा गौर से चारों तरफ देखते हुए चलिएगा।’’
जसवंत–कोई हर्ज नहीं चली चलो, मैं इस काम में बहुत होशियार हूं!
कालिंदी–इस भरोसे न रहिएगा, मैं फिर कहती हूं कि अपने चारों तरफ की निशानियों पर खूब गौर से निगाह करते हुए चलिए।
जसवंत–बहुत ठीक।
दोनों आदमी लगभग तीन कोस के चले गए। आगे एक छोटा-सा नाला मिला जिसमें पानी तो बहुत कम था मगर जल तेजी के साथ बह रहा था। दोनों आदमी पार हो किनारे-किनारे जाने लगे और थोड़ी दूर तक घूम घुमौवे पर चलकर एक पुराने भयानक श्मशान पर पहुंचे।
पहर रात बाकी थी। चांदनी अच्छी तरह फैली रहने के कारण इधर-उधर की चीजें साफ मालूम पड़ रही थीं। चारों तरफ फैली पुरानी हड्डियों पर निगाह दौड़ाने से विश्वास होता था कि यह श्मशान बहुत पुराना है मगर आजकल काम में नहीं लाया जाता। पास ही में एक लंबा-चौड़ा कब्रिस्तान भी नजर पड़ा, जो एक मजबूत संगीन चारदीवारी से घिरा हुआ था, एक तरफ फाटक था मगर बिना किवाड़े का।
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