उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
जसवंतसिंह को साथ लिए हुए कालिंदी उस कब्रिस्तान में घुसी और घोड़े पर से उतरकर बोली, ‘‘बस हम लोग ठिकाने पहुंच गए, आप भी उतरिए!’’
जसवंतसिंह भी घोड़े से उतर पड़ा और दोनों आदमी कब्रिस्तान में घूमने लगे।
कालिंदी–आपने इस कब्रिस्तान को अच्छी तरह देखा?
जसवंत–हां, बखूबी देख लिया।
कालिंदी–आप क्या समझते हैं कि इन कब्रों में मुर्दे गड़े हैं?
जसवंत–जरूर गड़े होंगे, मगर शाबाश, तुम्हारा दिल भी बहुत ही कड़ा है, इस तरह बेधड़क ऐसे भयानक स्थान में चले आना किसी ऐसी-वैसी औरत का काम नहीं।
कालिंदी–(हंसकर) जो काम औरत से न हो सके उसे मर्द क्या करेगा।
जसवंत–बेशक आज तो मुझे यही कहना पड़ा!
कालिंदी–हां, तो आप समझते हैं कि इन कब्रों में मुर्दे गड़े हैं?
जसवंत–क्या इसमें भी कोई शक है?
कालिंदी–इन कब्रों में से कोई भी कब्र ऐसी नहीं है जिसमें लाश गड़ी हो, सिर्फ दिखाने के लिए ये कब्रें बनाई गई हैं, इन सभी के नीचे कोठरियां बनी हुई हैं जिसमें समय पर हजारों आदमी छिपाए जा सकते हैं।
जसवंत–(ताज्जुब से) तो क्या उस सुरंग का फाटक भी इन्हीं कब्रों में से कोई है?
कालिंदी–हां, ऐसा ही है, मैं उसे भी दिखाती हूं।
जसवंत–क्या तुम कह सकती हो कि यह कब्रिस्तान कब्र का बना है?
कालिंदी–नहीं, मुझे ठीक मालूम नहीं मगर इतना जानती हूं कि सैकड़ों वर्ष का पुराना है, कभी-कभी इसकी मरम्मत भी की जाती है, अच्छा अब आप आइए सुरंग का दरवाजा दिखा दूं।
जसवंतसिंह को साथ लिए कालिंदी संगमरमर की एक कब्र पर पहुंची और उसकी तरफ इशारा करके बोली, ‘‘देखिए यही सुरंग का फाटक है, जरूरत पड़ने पर इसका मुंह खोला जाएगा।’’
जसवंत–यह कैसे निश्चय हो कि यही सुरंग का फाटक है?
कालिंदी–क्या मेरी बात पर तुम्हें विश्वास नहीं है?
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