उपन्यास >> कुसम कुमारी कुसम कुमारीदेवकीनन्दन खत्री
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रहस्य और रोमांच से भरपूर कहानी
रनबीर–हां ठीक है, मैं इस दूसरी मूरत को भी पहचानता हूं मेरे पिता से मिलने के लिए ये अक्सर आया करते थे और मुझ पर बहुत ही प्रेम रखते थे। उस समय मेरी अवस्था केवल सात वर्ष की थी तो भी मुझे शादी का दिन बखूबी याद है, बाकी भूली हुई बातों की (हाथ के इशारे से बातकर) देखिए वह दीवार पर खिंची तसवीरें याद दिलाती हैं! (दीवार के पास जाकर और एक तस्वीर पर उंगली रखकर) दुश्मनों के हाथ से सताए हुए मेरे पिता इसी मकान में मुझे लेकर रहते थे, इस मकान के आगे यह छोटा-सा बाग है जिसमें मैं दुष्ट जसवंत के साथ खेला करता था, उस नालायक की तसवीर भी यह देखिए मौजूद है।
दीवान–जी हां, और आगे यह देखिए आपके ब्याह के समय की तसवीरें हैं, दोनों दोस्त यह पेड़ के नीचे बैठे हैं, पंडितजी आपकी शादी करा रहे हैं, घूंघट से मुंह छिपाए यह आपके बगल में कुसुम बैठी हुई है और यह देखिए आपके पिता के पीछे सिपाहियाना ठाठ से एक आदमी खड़ा है, आप पहचानते हैं?
रनबीर–(गौर से देखकर) इसे तो मैं नहीं पहचानता।
दीवान–याद न होगा क्योंकि बचपन में इसे आपने दो ही एक दफे देखा है। तमाम फसाद इसी दुष्ट का मचाया हुआ है, इसी की बदौलत आपके पिता...
रनबीर–हां हां कहिए–मेरे पिता क्या? आप रुक क्यों गए?
दीवान–यह हाल पीछे कहेंगे, पहले इधर देखिए।
रनबीर–नहीं, पहले मेरे पिता का हाल कह लीजिए।
दीवान–(कुछ हुकूमत के ढंग पर) इसके लिए आपको जिद न करना चाहिए, पहले जो मैं कहता हूं उसे सुनिए।
रनबीर–खैर, जैसा मुनासिब समझिए।
दीवान–इधर आइए, पहले इस तरह की तसवीरों से शुरू कीजिए।
वीरसेन–(यकायक रोककर) सुनिए तो! यह शोरगुल की आवाज कैसी आ पड़ी है?
बीरसेन के टोकने से कुसुम कुमारी दीवान साहब और रनबीरसिंह भी चौंक पड़े और कान लगाकर सुनने लगे।
पहर रात से ज्यादे जा चुकी थी। तीनों आदमी दीवान साहब की बातें सुनने और तसवीरों के देखने में ऐसा मग्न हो रहे थे कि तनोबदन की सुध भुला बैठे थे मगर इस शोरगुल की आवाज ने उन लोगों को दीवान साहब की बातों और तसवीरों का आनन्द नहीं लेने दिया, लाचार चारों आदमी कमरे के बाहर निकल आए और उस तरफ देखने लगे जिधर से ‘मार-मार’ की आवाज आ रही थी।
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