उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
आशंका की एक लहर उसके मन में दौड़ गयी। रेखा क्यों यह वहाँ छोड़ गयी है -
कब? कहीं...।
वह
हड़बड़ा कर उठा, दबे पाँव कमरे से बाहर निकला, बरामदे से गैलरी में होता
हुआ रेखा के कमरे में दरवाज़े पर पहुँच गया। झाँक कर देखा, परदे के पार
कुछ दिखता नहीं था पर भीतर के असम प्रकाश की झलक मिलती थी - तो लकड़ियाँ
जल रही हैं यानी अभी जलायी गयी हैं; रेखा थोड़ी देर पहले ही आयी होगी।
पहले उसने चाहा, किवाड़ खोल कर भीतर जाये या कम-से-कम झाँक कर तसल्ली कर
ले, फिर न जाने क्यों उसे विश्वास हो गया कि रेखा कमरे में है और सोयी है
या कम-से-कम बिस्तर में तो है, और वह वैसे ही दबे-पाँव लौट गया। पलंग पर
लेट कर कापी को एक हाथ में पकड़े हुए वह प्रकाश की प्रतीक्षा करने लगा -
बत्ती जलायी जा सकती थी पर उसने नहीं जलायी, उतावली उसमें नहीं थी, कोई
उत्कण्ठा नहीं, केवल एक स्थिर विश्वास-भरी प्रतीक्षा-हर बात का समय है,
समय आने दो, वह होगी; कापी में जो-कुछ है वह भी वह जानेगा समय पर - ठीक
समय पर..।
जो जानने का कारण है, उसे लोग कितना कम, और जो जानने का कोई कारण नहीं है उसे कितना अधिक जानते हैं, इसकी पड़ताल की जाये तो कदाचित् यही मान लेना पड़ेगा कि जानने का कारण न होना ही जानने के लिए पर्याप्त और वास्तविक कारण है! वकील से विदा लेकर हेमेन्द्र ने रेखा के बारे में इधर-उधर जो पूछ-ताछ करनी शुरू की, तो उसे बहुत-सी आश्चर्यजनक बातें मालूम हुईं। 'रेखा'? मुस्कराहट। रहस्य। 'जाने दीजिए - किसी स्त्री की बुराई नहीं करनी चाहिए।' चेहरे पर दर्द का भाव। 'लेकिन आजकल की औरतें भी - कुछ पूछिए मत - हिन्दुस्तान को यूरोप बना दिया है -बल्कि यूरोप में भी ऐसा न होता होगा।' 'कहें कैसे, कहने की बात भी हो? पर आप उसके हितैषी मालूम होते हैं'....। 'वह तो-अपने यारों को लेकर पहाड़ों की सैरें करती-फिरती है - कभी इसको, कभी उसको-नौकरी का तो सिर्फ बहाना है, कभी किसी के साथ रहती है कभी किसी के'....। इसके बाद एक कटु कर्तव्य को साहसपूर्वक कर चुकने का क्लान्त पर आत्म-तुष्ट भाव।
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