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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


हेमेन्द्र ने सहसा नहीं माना। उसे इस बात का गर्व था कि वह लोगों को पहचानता है। और रेखा? रेखा तो बरसों तक उसकी ब्याहता रही है - साथ सोया नहीं तो क्या, उसे पहचानता तो है...। पर कई जगह से एक-सी बात सुनकर उसका निश्चय कच्चा पड़ गया, और जब यह मालूम हुआ कि रेखा अपने शिकार प्रायः लखनऊ से चुनती रही है और उनमें से एक का नाम भी लिया गया – चन्द्रमाधव - तब उसने लखनऊ जाकर पता लगाने की ठानी। यों रेखा क्यों करती है, उसे क्या - उसे रेखा से कुछ लेना-देना नहीं है, केवल तलाक़! - पर जिसके साथ बरसों का सम्बन्ध रहा है (क्या खूब शब्द है सम्बन्ध-साथ बँधना!) उसके बारे में कौतूहल स्वाभाविक ही है न...।

चन्द्रमाधव उसे देखकर आश्चर्य-चकित रह गया। “मिस्टर हेमेन्द्र-आप यहाँ-ह्वट ए सरप्राइज़! मैंने तो आपको पत्र लिखा था - मिला?”

हेमेन्द्र ने भी आश्चर्य से कहा, “मुझे - पत्र? मुझे तो नहीं मिला - कब लिखा था?”

“अभी कुछ दिन पहले-डेढ़-दो महीने।”

“तब हो सकता है पीछे आये - मैं भटकता रहा, सिंगापुर था, फिर बर्मा होता आया हूँ। कोई खास बात थी?”

“नहीं, यों ही। पर चलिए - शैल वी गो एण्ड हैव ए ड्रिंक?”

साथ बैठकर शराब पीने की एक कला है। हेमेन्द्र बहुत अच्छा साथी था। अवश नहीं होता, लेकिन बातों में गैर-ज़िम्मेदारी की वह ठीक मात्रा होती है जिससे रस आता है : गैर-जिम्मेदारी की भी, और-अश्लीलता की भी, यद्यपि जो रस देती है, जीवन को उभारती है उसे अश्लीलता नहीं कहना चाहिए...।

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