उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
हेमेन्द्र को
चन्द्रमाधव ने पत्र तो लिखा था, पर रेखा के बारे में बातचीत शायद इस
रासायनिक सहायता के बिना न कर पाता। पर प्यालों में वह सहज भाव से बात कर
सका; हेमेन्द्र की सुनी बातें उससे खण्डित भी हुईं, पुष्ट भी; निस्सन्देह
अगर हेमेन्द्र उसे मुक्त कर दे तो वह शादी करना चाहेगी; क्योंकि अब शादी
के सिवा और चारा क्या हो सकता है, और शादी भी जल्दी। इस पर उसने एक भद्दी
कहानी भी सुना दी थी जो किसी मध्य-कालीन फ्रांसीसी किस्से में उसने पढ़ी
थी - एक औरत शादी के लिए जल्दी मचा रही थी क्योंकि सवाल यह था कि शादी
पहले होती है कि बच्चा; किसी तरह शादी हो गयी थी, दूसरे दिन सवेरे बच्चा
हुआ था, और लोग नये बाप को बधाई देने आये थे उसके पुरुषार्थ पर -
सुहाग-रात भर में यह जादू!...
दोनों ज़ोर से हँसे थे, फिर बात
रेखा के विषय से कुछ दूर हट गयी थी, चन्द्र अपनी घरवाली की बात करने लगा
था, हेमेन्द्र ने उस मलय मेम की कुछ बात बतायी थी; इस पर दोनों सहमत हुए
थे कि औरत दुनिया की सब मुसीबतों की जड़ है, लेकिन उसके बग़ैर रहा भी नहीं
जाता - इसीलिए तो वह मुसीबतों की जड़ है। चन्द्र ने आँख मार कर कहा था,
“दोस्त, सुना है तुम्हारा काम तो उसके बग़ैर चल जाता है।” और हेमेन्द्र ने
उसी सुर में जवाब दिया था, “चल जाता था, पर अब यह लत लग गयी!” और दोनों
ठहाका मार कर हँसे थे। “तो दोस्त, रेखा को वापस ही क्यों नहीं बुलाते-मज़ा
आ जाये एक बार बुलालो तो!” हेमेन्द्र क्षण-भर तक सोचता रहा था, फिर उसे
बात बड़ी मनोरंजक जान पड़ी थी और वह हँसने लगा था। “पति के अधिकार...हाँ,
इतने बरसों बाद पति के अधिकारों का दावा करूँ तो....” नहीं, यह बहुत
ज्यादा मजे॓ की बात थी, इतनी कि हँसा भी न जाये, इस पर तो एक दौर और होना
चाहिए...”लेकिन वैसे मैं मजे॓ में हूँ - उसके जो जी में आवे करे - कुतिया!
फिरने दो आवारा...”
चन्द्रमाधव ने तय किया कि 'हेमेन्द्र इज़ आल
राइट।' हेमेन्द्र ने भी उस समय तय किया कि 'चन्द्र इज़ ए नाइस फ़ेलो।'
दूसरे दिन सवेरे अवश्य इस पर उसका निश्चय कुछ दुर्बल हो आया, पर हेमेन्द्र
उन लोगों में से नहीं था जो रात के निश्चयों पर सवेरे कोई गहरी अनुशोचना
करते हैं। रात रात है, दिन दिन; मलय में रहकर तो वह और भी अच्छी तरह जान
पाया है कि दोनों के विचार, दोनों के दर्शन, दोनों का जीवन ही अलग-अलग
है...।
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