उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
लेकिन, वाकई, रेखा को चिट्ठी तो लिखी जाये, और कुछ नहीं तो
शुगल रहेगा! वह उसके साथ रहकर उससे बात कर सकता, तो अच्छा होता; पर अब तो
वह नहीं हो सकता-न वह उसके पास जा सकता है, न रेखा उसके पास आएगी - अब तो
चिट्ठी ही है। सहसा जीवन के खोये हुए अवसरों का तीखा बोध उसे हो आया। रेखा
भी एक खोया हुआ अवसर था - कितना बड़ा अवसर - कैसे विदग्ध विलास का अवसर...।
किसी
बेहया ने ठीक कहा है - अन्तिम समय में मानव को अनुताप होता है, तो अपने
किये हुए पाप पर नहीं, पुण्य करने के अवसरों की चूक पर नहीं; अनुताप होता
है किये हुए नीरस पुण्यों पर, रसीले पाप कर सकने के खोये हुए अवसरों पर...।
कमरे से रेखा बहुत देर तक नहीं निकली, नाश्ता भुवन ने अकेले ही किया। उसके बाद ही रेखा ने उसे बुला भेजा।
वह पलंग पर तकियों के सहारे लेटी हुई थी, कन्धों पर शाल ओढ़े और पैरों पर कम्बल; बीच में उसने बारीक काली धारियों वाली उन्नाबी रंग की साड़ी पहन रखी थी जिससे उसके चेहरे का पीलापन कुछ कम खटकने वाला हो गया था।
“मेरी तबीयत ठीक नहीं है भुवन - यहीं बैठो।”
“क्या बात है, रेखा?”
“कुछ नहीं, चक्कर आते हैं - और मतली होती है - वही सब।” कहती हुई वह थोड़ा लजा कर मुस्करा दी।
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