उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने कहा, “डाक्टर को नहीं बुलाना चाहिए, रेखा?”
“बुलाऊँगी, बुलाऊँगी , अभी मुझे सोच तो लेने दो।”
“इसमें सोचना क्या है, रेखा? कामन सेंस की बात है।”
“सो तो है। पर, सोचना भी तो है। आजकल में ही बुला लूँगी डाक्टर को भी एक
बार।”
“मुझे आज श्रीनगर जाना है - मैं बुला लाऊँ?”
“आज फिर?”
भुवन
ने बताया कि उसे लौटना है; शीघ्र ही वह फिर छुट्टी लेकर आ जाएगा। थोड़े
दिन बाद ही दशहरे की छुट्टियाँ भी पड़ती हैं, उनसे लगी हुई छुट्टियाँ लेगा
ताकि लगातार काफ़ी दिन तक रह सके। आठ-दस दिन में ही वापस पहुँच जाएगा - हो
सका तो और भी जल्दी।
रेखा चुपचाप उसे देखती रही।
“क्या सोच रही हो, रेखा?”
“कुछ नहीं। ठीक कहते हो तुम...”
भुवन
को डाक्टर की बात फिर याद आ गयी। उसके बहुत आग्रह करने पर रेखा ने वचन
दिया कि दो-तीन दिन के अन्दर ही वह स्वयं डाक्टर के पास जाएगी और उस के
आदेशों का पालन भी कड़ाई के साथ करेगी। फिर उसने कहा, “श्रीनगर जाओगे तो
वक़्त हो तो मिसेज़ ग्रीव्ज़ से भी मिल जाना - तुम्हें अच्छी लगेगी
बुढ़िया। और उसे यह भी कह आना कि तुम फिर आओगे।”
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