उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन ने स्वीकार कर लिया।
दोपहर
तक वह रेखा के पास ही बैठा रहा, कभी बातें करता और कभी किसी पुस्तक से कुछ
पढ़कर सुनाता; बारिश थमी थी पर बादल वैसे ही थे और निश्चय था कि फिर
बरसेंगे; भुवन ने फिर आग जलवा दी थी और ढेर-सी लकड़ियाँ भी चुनवा कर रख दी
थी कि आग बराबर जलती रखी जा सके। दोपहर के भोजन के बाद, रेखा को भी स्वल्प
कुछ खिलाकर वह चला गया। शाम को अपना सब प्रबन्ध करके लौटा; दूसरे दिन
तड़के ही ताँगा उसे लेने आएगा ताकि वह सवेरे की पहली बस पकड़ सके जो शाम
को उसे जम्मू पहुँचा दे; मिसेज ग्रीव्ज़ से भी वह मिल आया, चाय भी उसी के
साथ पी।
जब वह वापस आया तब रेखा सो रही थी। भुवन चुपचाप उसके
कमरे में जाकर बैठ गया; उसमें एक सुखद गरमाई थी, और दयार की लकड़ी की
प्रीतिकर गन्ध कमरे की हवा को एक ताज़गी दे रही थी। लकड़ी का कभी-कभी
चटकना, गाँठों के गन्ध-रसों का फुरफुरा कर जलना, रन्ध्रों से रुद्ध गैस का
सीत्कार के साथ मुक्त होना और शिखाओं की हलकी सुरसुराहट-ये सब एक बड़े
मधुर और धीमे संलाप की तरह थे, जो रेखा के साथ उसके मौन संलाप की मानो
पीठिका था...। एक तन्द्रा-सी उस पर भी छा गयी।
रेखा ने जाग कर कहा, “तुम आ गये, भुवन?” और उसके कुछ पूछने से पहले ही
कहा, “मैं बहुत अच्छी हूँ। सो चुकी, अब चाय पी जाये - पिओगे?”
भुवन ने उठकर सलामा को आवाज़ दे दी।
रात
में फिर हल्की बारिश होने लगी। भुवन के कमरे में भी आग जलायी गयी, पर वह
रेखा के पास ही आराम-कुरसी लिए बैठा रहा, रेखा लेटी रही। एक मौन-सा उन पर
छा गया; रेखा ने कहा, “जाओ सोओ, भुवन, तुम्हें सवेरे जाना है।”
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