उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन बोला, “बहुत सवेरे जाना हो तो रात को जागने में ही सुविधा होती है।
यह तो आजमाया नुस्खा है।”
रेखा
मुस्करा दी। “मैं तो तैयार हूँ - रात को तो ठीक रहती हूँ। काफ़ी भी
पिलाऊँगी।” फिर सहसा गम्भीर होकर, “नहीं, भुवन, सोओ तुम। अच्छा, ठीक बारह
बजे तुम चले जाओगे - हाँ?”
भुवन ने आकर उसके माथे पर अपने ओठ रख
दिये, बहुत देर तक उसके बाल सूँघता रहा। फिर पहले-सा बैठ गया; केवल दोनों
के हाथ बराबर उलझते-सुलझते, एक दूसरे को सहलाते खेलते रहे, मानो उनकी
बातचीत से अलग, अपने ही किसी रहःसंलाप में व्यस्त, तल्लीन...।
ठीक
बारह बजे भुवन ने उठकर रेखा का माथा चूमा, फिर क्षण-भर उसकी आँखों में
देखकर उसकी पलकें, गाल, कर्णमूल; फिर नासापुट, ओठ; फिर उसके कण्ठ-मूल को
चूम कर धीरे से कहा, “गॉड ब्लेस यू” और धीरे-धीरे उसके कन्धे से अँगुलियों
तक उसकी बाँह सहलाता हुआ चला गया।
सवेरे फिर मिलने की बात नहीं
थी; पर जब तैयार हुआ तो एक ड्रेसिंग गाउन पहने और सिर पर शाल लपेटे, मधुर
उनींदी आँखोंवाली रेखा दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गयी। भुवन ने उसे अन्दर
खींच कर किवाड़ उढ़का दिये। और कहा, “तुम क्यों उठी रेखा? तुम्हारे उठने
की तो बात नहीं थी-”
“तुम चुपके से चोर की तरह चले जाते?”
“नहीं, वह तो नहीं सोचा था - मैं आता और मिल जाता। अब तुम खड़ी रहोगी और
मैं जाऊँगा तो - अधिक चुभेगा...।”
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