उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“नहीं भुवन, ठीक है; टेक ए गुड लुक एट मी ह्वेन यू गो*-मैं भी देखूँगी।”
(*जाते हुए एक बार मुझे अच्छी तरह देख लो।)
भुवन ने कुछ सहम कर कहा, “मैं हफ़्ते-भर में वापस आ रहा हूँ, रेखा।”
“जानती हूँ। विदा को थियेटर नहीं बना रही, भुवन! लेकिन सब विदाएँ अन्तिम
होती हैं - चरम कोटि का जोखिम...।”
“मैं
छोटा था, तब एक डरावना स्वप्न देखा करता था। दोनों हाथों को अलग करता हूँ,
फिर ताली बजाने लगता हूँ तो न जाने क्यों, हाथ टकराते ही नहीं, एक-दूसरे
से छूते नहीं, न मालूम कैसे एक-दूसरे के पार निकल जाते हैं। और स्वप्न
देखकर न जाने क्यों डर लगा करता था, हालाँकि है हँसी की बात, डरने की
नहीं।”
“हाँ। जब भी सम्पर्क टूटता है तो फिर कभी होगा कि नहीं, नहीं कहा जा सकता।
आशा ही होती है।”
“पर सम्पर्क तो नहीं टूटता, अलग होना और बात है, सम्पर्क।”
“वह
तो दूसरे स्तर की बात है भुवन; उस पर मैंने तुम्हें विदा कब किया है? उस
पर 'तू ही है, मैं नहीं हूँ'-हमारा प्रत्येक क्षण हमारे सारे अनुभव का
पुंज है उस स्तर पर...”
ताँगा आ गया था। भुवन ने रेखा के दोनों
हाथ अपने हाथों में लिए, फिर सहसा मुड़कर बाहर चला गया। रेखा बरामदे में
आकर खड़ी रही; ताँगा चला तो दोनों एक दूसरे की ओर देख कर मुस्कराते रहे जब
तक कि चेहरे ओझल न हो गये...।
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