उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
12
सातवें दिन ही भुवन लौट आया। उसने सोचा था कि शाम तक वह पहुँचेगा, पर पहुँचा देर रात को। बारिश हो रही थी और नदी बहुत चढ़ आयी थी। दोपहर को उसने तार दे दिया था : 'शाम को पहुँच रहा हूँ' पर रात को बँगले पर पहुँच कर उसे बाहर से ही न जाने क्यों लगा मानो अब उसके पहुँचने की बात न थी-क्या तार नहीं पहुँचा?
वह ताँगे से उतरा तो सलामा आ गया। सलाम करके बोला, “मेम सा'ब की तबीयत ठीक नहीं है।”
“कहाँ हैं - कमरे में जा सकते हैं?” कहकर भुवन उत्तर की प्रतीक्षा न करके रेखा के कमरे की ओर बढ़ गया, धीरे-से दस्तक देकर क्षण-भर बाद किवाड़ खोलकर भीतर चला गया।
नीचे टेबल लैम्प का प्रकाश कम था, क्षण-भर वह ठिठक रहा। फिर सहसा उसके मुँह से निकला, “रेखा।”
रेखा पलंग पर सीधी लेटी थी, चेहरा बिल्कुल पीला, निश्चल, माथे पर बल लेकिन वे भी निश्चल, मानो देर से दर्द सहते-सहते जड़ हो गये हों...। भुवन ने छादन उठाकर प्रकाश कुछ बढ़ा दिया, रेखा ने ज़रा भी हिले बिना क्षीण स्वर में पूछा, “कौन है?” और भुवन का स्वर सुनकर वैसे ही निश्चेष्ट भाव से कहा, “तुम आ गये भुवन...क्यों आ गये तुम!”
भुवन सन्न रह गया। जल्दी से रेखा के पास घुटने टेक कर उसके माथे पर हाथ रखकर बोला, “क्या हुआ रेखा?”
रेखा कुछ नहीं बोली। उसका शरीर काँपने लगा, पहले थोड़ा-थोड़ा, फिर जोर से; ओठों की रेखा खिंच कर पतली हो आयी; बन्द आँखों की कोरों से आँसू झरने लगे, टप, टप, टप-टप...
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