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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


भुवन भी जड़ बैठा रहा, न हिल-डुल सका, न बोल सका।

कई मिनट बाद उसे ध्यान आया कि वह भीगा हुआ है, वह उठकर अपने कमरे में कपड़े बदलने चला गया। जल्दी से सामान ठीक-ठाक कर, कपड़े बदल कर फिर रेखा के पास कुरसी खींच कर बैठ गया। उसकी दर्द से सिकुड़ी भौहों को देखता; फिर मानो साहस जुटा कर धीरे-धीरे उन सलवटों को सहलाने लगा।

उससे भौंहें कुछ सीधी हो गयीं, जैसे दर्द की खींच कुछ कम हुई। भुवन ने फिर पूछा, “रेखा, क्या हुआ है, क्या तकलीफ़ है?”

रेखा के आसूँ फिर टप-टप ढरने लगे-अब की बार शरीर को कँपाते हुए नहीं, यों ही, मानो अवश शरीर से स्वयं झर रहे हों। भुवन-बार-बार उन्हें पोंछने लगा।

थोड़ी देर बाद रेखा के ओठ हिले। वह कुछ कह रही थी। भुवन आगे झुक गया। रेखा ने आँखें खोल कर उसे देखा, फिर आँखें बन्द करते हुए कहा, “भुवन, मेरे भुवन, मुझे माफ़ कर दो।”

भुवन ने और भी व्याकुल होकर पूछा, “बात क्या है, रेखा?”

सहसा उसकी ओर करवट फेरकर रेखा बिलख-बिलख कर रो उठी।

भुवन सुन्न बैठ रहा।

दरवाज़े पर दस्तक हुई।

भुवन उठकर गया, खानसामा था। बोला, “खाना तैयार है हजूर।” भुवन कहने को था कि नहीं खाऊँगा, पर रुक गया और बोला, “अच्छा, हम अभी आते हैं।”

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