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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


द्वार बन्द कर के फिर वह रेखा के पास लौट आया। धीरे-धीरे रेखा शान्त होने लगी। थोड़ी देर बाद वह कोहनी के सहारे उठ बैठी, फिर पलंग से पैर नीचे लटका कर उसने स्लीपर टटोले और खड़ी हो गयी; ड्रेसिंग रूम की ओर जाने लगी। उसकी अटपटी चाल देख कर भुवन सहारा देने लगा, पर उसने सिर हिला दिया।

दो-तीन मिनट बाद वह मुँह-हाथ धोकर लौटी। चेहरा बिलकुल पीला, लेकिन स्निग्ध; सलवटें हट गयी थीं। चाल वैसी ही निर्बल, मगर संकल्प-शक्ति के सहारे सीधी। पलंग पर बैठ कर उसने पैर ऊपर समेट लिए, क्षण-भर आँखें बन्द की मानो इस आने-जाने के श्रम से टूट गयी हो, फिर सहसा उसके चेहरे पर ऐसी दिव्य मुस्कान खिल आयी कि भुवन विमूढ़ देखता ही रह गया-इतना दुर्बल पीला चेहरा, इतनी दुर्बल, वेदना-जर्जर देह, अभी पहले की वह अवश रुलाई, और-यह मुस्कान!

उसकी विमूढ़ता देखकर रेखा ने कहा, “पगले, ऐसे स्टेयर नहीं करते। इस मुस्कान का सम्मान मुस्कान से होता है-समझे?”

भुवन जैसे-तैसे मुस्करा दिया।

“मैं ठीक हूँ अब। तुम जाओ, खाना खाकर जल्दी से आ जाना मेरे पास”

“पर रेखा, तुम्हें।”

“जाओ न, खाना खा खाओ, अच्छे भुवन, राजा भुवन-त्रिभुवन के महाराज-'महाराज ए कि साजे एले मम हृदयपुर माँझे'-जाओ खाना खा आओ!”

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