उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
द्वार
बन्द कर के फिर वह रेखा के पास लौट आया। धीरे-धीरे रेखा शान्त होने लगी।
थोड़ी देर बाद वह कोहनी के सहारे उठ बैठी, फिर पलंग से पैर नीचे लटका कर
उसने स्लीपर टटोले और खड़ी हो गयी; ड्रेसिंग रूम की ओर जाने लगी। उसकी
अटपटी चाल देख कर भुवन सहारा देने लगा, पर उसने सिर हिला दिया।
दो-तीन
मिनट बाद वह मुँह-हाथ धोकर लौटी। चेहरा बिलकुल पीला, लेकिन स्निग्ध;
सलवटें हट गयी थीं। चाल वैसी ही निर्बल, मगर संकल्प-शक्ति के सहारे सीधी।
पलंग पर बैठ कर उसने पैर ऊपर समेट लिए, क्षण-भर आँखें बन्द की मानो इस
आने-जाने के श्रम से टूट गयी हो, फिर सहसा उसके चेहरे पर ऐसी दिव्य
मुस्कान खिल आयी कि भुवन विमूढ़ देखता ही रह गया-इतना दुर्बल पीला चेहरा,
इतनी दुर्बल, वेदना-जर्जर देह, अभी पहले की वह अवश रुलाई, और-यह मुस्कान!
उसकी विमूढ़ता देखकर रेखा ने कहा, “पगले, ऐसे स्टेयर नहीं करते। इस
मुस्कान का सम्मान मुस्कान से होता है-समझे?”
भुवन जैसे-तैसे मुस्करा दिया।
“मैं ठीक हूँ अब। तुम जाओ, खाना खाकर जल्दी से आ जाना मेरे पास”
“पर रेखा, तुम्हें।”
“जाओ न, खाना खा खाओ, अच्छे भुवन, राजा भुवन-त्रिभुवन के महाराज-'महाराज ए
कि साजे एले मम हृदयपुर माँझे'-जाओ खाना खा आओ!”
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