उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन वैसा ही विमुग्ध खड़ा हो गया। “अच्छा, अभी आया।”
उसने
बाहर निकल कर किवाड़ बन्द किये कि रेखा एक हल्की-सी कराह के साथ मानो टूट
कर पीछे गिरी, क्षण-भर के लिए अँधेरा हो गया; फिर उसने ओठ काट लिए और
निश्चल पड़ी रही, दर्द के स्पन्दनों के साथ क्षण गिनती हुई...
13
बाधा की सब सम्भावनाओं को काट कर भुवन फिर दबे-पाँव कमरे में आया-कपड़े बदल कर, गर्म चादर ओढ़ कर, पैरों में मोज़े पहन कर।
रेखा सो रही थी।
परली दीवार से सटी तिपाई पर दवा की दो-एक शीशियाँ रखी थीं। भुवन दबे-पाँव जाकर देखने लगा। दवाएँ पेटेंट थीं, डाक्टर की दी हुई भी हो सकती थी और स्वयं लायी हुई भी, ऐसी कोई दवा न थी जिस से कुछ पता लगे कि रेखा को तकलीफ़ क्या है। फिर उसने देखा, एक खाली डिब्बा पड़ा है जिसके अन्दर शीशी नहीं है। यह दर्द को दबाने और नींद लाने की दवा थी। शीशी क्या हुई? भुवन ने लौटकर रेखा के पलंग के पास की छोटी मेज़ देखी; ऊपर तो नहीं, पर एक तरफ़ के खाने में शीशी खुली रखी थी, गोलियों को ढँकने वाली रुई का गाला भी बाहर रखा था, उसके पास छोटे गिलास में ज़रा-सा पानी। तो रेखा ने दवा खायी होगी...भुवन फिर उसे देखता रहा; उसकी साँस नियमित चल रही थी-बल्कि कुछ भारी, थोड़ी खरखराहट के साथ जैसी दवा की नींद से उन लोगों में भी होती है जिनकी नींद का निश्वास-प्रश्वास साधारणतया बिलकुल अश्रव्य होता है...भुवन ने लैम्प का छादन झुकाया और धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो गया।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book