उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
अपने कमरे में
जाकर वह टहलने लगा। रेखा सो रही है, इस ज्ञान से उसे कुछ तसल्ली थी; पर
उसे हुआ क्या है? कमरे के चक्कर काटते-काटते उसे सहसा लगा, वह बन्दी है-इस
कमरे का, इस बेपनाह बारिश का, और अपनी अज्ञता का...। ऐसे ही जेल के कैदी
अपनी बेबसी में चक्कर काटते होंगे कदम नाप-नाप कर। उसकी बेबसी बदतर है
क्योंकि उस पर कोई बन्धन नहीं है, कोई उसे रोकता नहीं है...।
थोड़ी
देर बाद वह लेट गया और बारिश की टपाटप सुनने लगा। सोचना-अनुक्रमिक
चिन्तन-उसने छोड़ दिया; जो विचार उठता, उठता, फिर स्वयं लीन हो जाता; फिर
कोई सर्वथा असंगत दूसरा उठता और विलीन हो जाता-मानो बुलबुले, प्रत्येक
गोलायित, सम्पूर्ण, अनन्य-सम्बद्ध, नश्वर...।
न मालूम कितना समय ऐसे बीत गया। फिर बारिश की टपाटप की सम्मोहनी ने उसे भी
तन्द्रालस कर दिया। वह भी न मालूम कितनी देर।
सहसा
वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। क्या हुआ? क्या उसने कोई पुकार सुनी थी-कोई कराह?
वह कान लगा कर सुनने लगा कि बारिश के शब्द के ऊपर कुछ सुन सके। पर नहीं...
उठकर उसने किवाड़ खोला और बरामदे से होकर रेखा के कमरे की खिड़की
के पास गया। हाँ, थोड़ी देर बाद भीतर से स्पष्ट शब्द आया-निस्सन्देह कराह
का स्वर। वह लपक कर भीतर गया।
रेखा कराह रही थी। पर वह कुछ अस्पष्ट कह भी रही थी : भुवन ने सुना :
“जीवन...जान...प्राण...”
भुवन
ने उसे सँभाला। उसने आँखों से ड्रेसिंग रूम की ओर इशारा किया; भुवन उसकी
बाँह कन्धे पर डालकर सहारा देने से अधिक उसे उठाये हुए बाथ-रूम के दरवाज़े
तक ले गया, एक हाथ से दरवाज़ा उसने खोला और पूछा, “जा सकोगी?”
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