उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
रेखा
ने सिर हिला दिया, बाँह छुड़ा कर किवाड़ के सहारे खड़ी हुई और भीतर जाने
लगी। जाते-जाते ड्रेसिंग की अलमारी की ओर उसने इशारा किया : “रुई”
भुवन ने वहाँ से डाक्टरी रुई का बण्डल निकाल कर दे दिया। रेखा ने किवाड़
बन्द कर दिया, भुवन खड़ा रहा।
रेखा लौटी तो किवाड़ के सहारे भी नहीं खड़ी हो पा रही थी। भुवन ने सँभाल
लिया और ले जाकर पलंग पर लिटा दिया।
थोड़ी
देर रेखा मूर्च्छित-सी रही, फिर उसने आँखें खोली और कहा, “मेरे जीवन...”
और फिर ओठ काट लिए, दर्द से उठ बैठी। फिर उसने पहले की भाँति इशारा किया;
भुवन अब की बार उसे सीधे उठा कर ही ले गया; एक हाथ से कुरसी खींच कर
बाथ-रूम के दरवाज़े के आगे रख दी, और रेखा को बिठा दिया। रेखा अन्दर गयी,
लड़खड़ाती लौटकर कुरसी पर बैठी, वहाँ से भुवन फिर उठाकर पलंग पर ले गया।
लेटकर फिर वह अस्पष्ट पुकारने लगी-”जान, प्राण-” लेकिन भुवन उसके ऊपर झुका
है इसका उसे होश नहीं था, और उसके शब्द भी मानो शब्द नहीं थे, केवल कराह
को छिपाने का एक तरीका।
भुवन एकाएक उठकर ड्रेंसिंग-रूम में गया, कुरसी उठाकर बाथ-रूम में रखने
चला, पर एक कदम अन्दर रखकर ठिठक गया।
कटार की कौंध-से तीखे क्षण में वह सब समझ गया। और एक उन्मत्त फुर्ती से वह
काम करने लगा।
रेखा
के पलंग के पास एक कुरसी उसने रखी, उस पर एक चिलमिची, तिपाई पर से सामान
उठाकर उस पर पानी का भरा जग, रुई और साबुन-तौलिया, दूसरे जग में पानी भर
कर आग के पास गर्म होने के लिए रख दिया, स्टोव पर केतली में भी; फिर
बाथ-रूम में जाकर उसने चिलमिची खाली की, उसे धोकर पलंग के पास फ़र्श पर रख
दिया। रेखा इतनी देर अर्द्ध-मूर्च्छित थी, अब फिर सचेत हुई और उठने का
यत्न करने लगी; भुवन ने कहा, “रेखा, मैंने सामान यहीं रख दिया है-मैं बाहर
जाता हूँ।”
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