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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा ने किसी तरह अपने सारे बल को समेट कर कहा, “मुझे माफ़ कर दो, प्राण मेरे।” और एक दुर्बल हाथ उसकी ओर को बढ़ाया। भुवन ने उसे पकड़ते हुए कहा, “रेखा, यह हुआ क्या-तुम डाक्टर के पास नहीं गयी थी?”

“गयी थी-गयी थी मैं-” रेखा का उत्तर मानो एक चीख थी, “तभी तो-भुवन मुझे माफ़...”

“क्या?” आश्चर्य के थप्पड़ से भुवन का स्वर खुरदरा हो आया था; उसे फिर संयत करके किसी तरह उसने कहा, “क्या, रेखा-तुम ने...”

रेखा ने सिर हिलाया। साथ ही कहा, “तुम-जरा बाहर जाओ भुवन।”

वह जल्दी से जाने लगा तो रेखा ने कहा, “मेज पर दो चिट्ठियाँ हैं, ले जाओ।” बाहर निकल कर उसने देखा, एक चिट्ठी अपरिचित अक्षरों में, दूसरी परिचित-चन्द्रमाधव की; अपरिचित हाथ की चिट्ठी उलट कर उसने हस्ताक्षर देखे - हेमेन्द्र। चिट्ठियाँ उसने पूरी नहीं पढ़ी, यद्यपि छोटी थी, जल्दी से नजर उन पर दौड़ा गया; फिर भी जो-जो पद या पदांश उसने पढ़ा वह नोक-सा धँसता चला गया। वह जल्दी से कमरे की ओर लौटा, रेखा फिर कराह रही थी-चिट्ठयाँ जैसे-तैसे ज़ेब में ठूँस कर वह अन्दर चला गया। चिलमिची ले जाकर धो कर उसने फिर स्थान पर रख दी।

रेखा ने कहा, “तुम्हें कितना सता रही हूँ - मैं बहुत लज्जित हूँ भुवन।”

“किस डाक्टर के पास गयी थी तुम?”

भुवन के स्वर में अविश्वास था; रेखा ने कहा, “झूठ नहीं बोलती, भुवन, अच्छे डाक्टर के पास गयी थी-सर्जन के।”

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