उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
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वह थक गया था। लेकिन थकान उसकी पेशियों में नहीं थी, एक जड़ता उसके मन पर छा गयी थी। कारण बँगले से रेखा को उठाकर आने का श्रम नहीं था, कारण यह था कि बहुत-कुछ समझ चुकने पर भी इस विलायती गोरख-धन्धे के अलग-अलग टुकड़े जुड़ नहीं रहे थे, पूरा चित्राकार नहीं बन रहा था।
वेटिंग-रूम ठण्डा था। निश्चल बैठे रहने से ठण्ड उसके पैर के पंजों से चढ़ती हुई सारे शरीर में छा गयी थी, वह धीरे-धीरे ठिठुर रहा था।
रेखा की कापी से उड़ते हुए वाक्य सामने आते और विलीन हो जाते, फिर दूसरे आते और वे भी विलीन हो जाते, वेदना और अभिप्राय का एक अवदान उसे देकर : लेकिन ये ही वाक्य कभी दुबारा आ जाते तो नयी वेदना लेकर, और शायद कुछ नया अर्थ भी लेकर...।
एक तन्द्रा उस पर छा गयी। अगर उसके पैर गीले, ठिठुरे हुए न होते तो वह ऊँघ जाता; यों वह एक तन्द्रिल अवस्था में बैठा था।
हठात् एक निश्चलता के बोध ने उसे जगाया। बारिश थम गयी थी। उसने खड़े होकर अँगड़ाई ली। स्निग्ध अलसाये शरीर की अँगड़ाई सुखद और स्फूर्तिदायक होती है पर ठिठुरे शरीर की अँगड़ाई मानो और भी जड़ बना देती है। वह बाहर के मण्डप में गया : बादलों की चादर अब भी समान रूप से आकाश में फैली थी, पर अब उनमें एक फीकापन था-भोर होने वाला है...भुवन ने फिर घड़ी देखी-छः बजने को थे। वह फिर वेटिंग-रूम की ओर मुड़ा।
प्रवेश कर के वह बैठने ही लगा था कि भीतर की ओर से एक नर्स निकली। उसने कुछ अचम्भे से पूछा, “आप कैसे?” फिर सहसा समझ कर कहा, “वह एमर्जेन्सी केस।”
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