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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


डाक्टर चला गया। भुवन चलने लगा, तो नर्स उसकी ओर देखकर मुस्करा दी। मुस्कराहट औपचारिक थी, पर उसने मुस्करा कर उसे स्वीकार किया, कहा, “गुड मार्निंग-” और बाहर निकल आया।

सड़क पर जगह-जगह पानी पड़ा था, लेकिन वह तेज़ चलने लगा। नदी की ओर-नदी बहुत चढ़ आयी थी और यद्यपि लोग उठे नहीं थे, वह मानो वहीं से उनके सहमे हुए भाव देख सकता था...उदास, मलिन, गन्दा, बदबूदार श्रीनगर, गँदली मैला ढोने वाली नदी, उदास मैला आकाश, जैसे म्रियमाण आबादी पर पहले से छाया हुआ कफ़न-भुवन ने ऊपर बायें को देखा, शंकराचार्य की पहाड़ी भी उतनी ही उदास, केवल उस धुँधले, तोते के पिंजरे जैसे मन्दिर के ऊपर की बत्ती टिमटिमा रही थी भोर के तारे की तरह धैर्यपूर्वक...।

उसकी चाल और तेज़ हो गयी। डाक्टर का कहा हुआ वाक्य उसकी स्मृति में गूँज गया-”शी इज़ ए वेरी ब्रेव वुमन।” एक स्निग्धता उसके भीतर फैल गयी, उसने निःशब्द भाव से भीतर ही भीतर कहा, “रेखा...”

ताँगा लेकर वह वापस पहुँचा तो सलामा दौड़ा हुआ आया। “मेम साहेब”

भुवन ने कहा, “ठीक है, सलामा - अब कोई फ़िक्र नहीं है।

“बहुत तकलीफ़ हो गया।”

“हाँ, सलामा। ख़ुदा ने रहमत की।”

भीतर जाकर वह कपड़े बदलने लगा। सलामा ने आकर आग जलाने का उपक्रम किया। सहसा ज़ेब में कागज़ की खड़खड़ाहट से भुवन को याद आया - वे चिट्ठियाँ। उन्हें निकाल कर वह रेखा के कमरे में रखने चला। जहाँ से उठायी थीं, वहीं रखने लगा तो देखा, वहाँ रेखा के हाथ के लिखे और भी दो-एक कागज़ हैं। थोड़ी देर वह झिझका, फिर उसने मान लिया कि वे भी उसी के लिए हैं, और खड़ा-खड़ा पढ़ने लगा।

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