उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
390 पाठक हैं |
व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“नहीं जानती कि क्या कहूँ-मेरी सब इन्द्रियाँ जड़ हो गयी
हैं। कहना चाहती हूँ बहुत, लिखना नहीं; पर कह सकूँगी नहीं, वह मुझी में रह
जाएगा-जैसे कितना कुछ अनभिव्यक्त रह जाएगा!”
“तुम जब आओगे, तब क्या मेरी आँखों में नहीं पढ़ सकोगे कि मेरा यह आहत,
चिथड़े-चिथड़े हो गया जीवन क्या कहना चाहता है?”
“मैं
मानती हूँ कि अगर प्यार यह भी परीक्षा नहीं सह सकता तो वह प्यार नाम का
पात्र नहीं है। मैं-मैंने तुम्हारे साथ आकाश छुआ है, उसका व्यास नापा है :
उस सेटिंग में यह छोटी-सी बात लगती है-फिर लगता है कि हमें जोड़ने वाल
सूक्ष्म सजीव तन्तु ही काट दिये जा रहे हैं...क्या हम टूटकर अलग हो
जाएँगे? टूटकर नहीं, बहकर सही, अनजाने बहते रहकर इतनी दूर भी तो हट जा
सकते हैं कि एक-दूसरे को छोड़ दें-मुक्त कर दें...मैं नहीं जानती क्या
होगा-जो हो, अब हो...वही है तो वही हो-जिस सौन्दर्य को लिए हम पास आये थे,
उसी को लिए दूर हट जायें-अगर हम और निकट आयें तो विधि को धन्यवाद दें, और
अपनी आत्मा के सामर्थ्य भर ऊँचे उठें-सुन्दर के आकाश में। इतना छोटा-सा है
मानव-जीवन...”
“काश कि मैं कह सकती-एक ही बात जो कहना चाहती हूँ
वही कह सकती, पर सिर्फ़ आँसू ही कह सकते हैं। मैं टूट गयी हूँ, भुवन, मेरे
जीवन, जैसी पहले कभी नहीं टूटी थी। लेकिन इतना कह दूँ-मुझे किसी बात का
पछतावा नहीं है, और इससे भी दस-गुनी बुरी तरह टूट जाऊँ तब भी तुम्हारे साथ
के एक क्षण को, हमारी साझी अनुभूति के एक स्पन्दन को भी छोड़ देने को मैं
राज़ी नहीं हूँ...मेरे महाराज, यह याद रखना, और मुझे क्षमा कर देना...।”
“लेकिन
प्यार क्या है? तुम सचमुच प्यार करते हो, करते थे? यह दर्द क्यों
है-किसलिए है? जो कुछ हुआ है, हो रहा है, क्यों-किस उद्देश्य की पूर्ति के
लिए?”
|