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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“जो अब तक है, सुन्दर हो और हमारे व्यक्तित्वों का प्रस्फुटन हो , एक तुम्हारे और एक मेरे व्यक्तित्व का नहीं, तुम्हारे अनेक व्यक्तित्वों का, मेरे भी अनेक व्यक्तित्वों का सम्मिलन और विकसन - केवल मेरे उस एक पहलू का नहीं, जिसे मैं तुम्हें नहीं छूने दूँगी - जिससे मैं तुम्हें असम्पृक्त रखूँगी भुवन, तुम्हीं को नहीं, उस अपने को भी जिसे तुमने प्यार किया है - अगर तुम ने किया है; जिसने तुम्हें प्यार किया है जैसा और किसी को नहीं - प्राणी, वस्तु, विचार, भावना, किसी को नहीं...।”

“शिथिल मत होना, महाराज; आत्मा का शैथिल्य ही प्यार की पराजय है, हम दोनों को बराबर सतर्क, सजग रहना है - क्योंकि हम दोनों ऐसे आत्म-निर्भर स्वतः-सम्पूर्ण हैं कि सहज ही बहकर, सिमटकर अलग हो जा सकते हैं - अपनी-अपनी सीपियों में बन्द, अन्तरंग अनुभूति के छोटे-छोटे द्वीप - और इस प्रकार बरसों जीते रह सकते हैं, मौन, शान्त, लेकिन एकाकी...”

“मैं सोचती हूँ और अवाक् रह जाती हूँ : मेरे साथ यह कैसे घटित हुआ - मेरे, जिस्म में सब वासना, सब आकांक्षा मर गयी थी - जो स्त्री होना भी नहीं चाहती थी, माँ होना तो दूर...।

ह्वेन आइ एम डेड , माई डीयरेस्ट
सिंग नो सैड सांग्स फार मी -

(प्रियतम , मेरे मरने पर मेरे लिए कोई शोकगीत मत गाना -क्रिस्टिना रोजे॓टी)

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