उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“जो अब तक है, सुन्दर हो और हमारे व्यक्तित्वों का
प्रस्फुटन हो , एक तुम्हारे और एक मेरे व्यक्तित्व का नहीं, तुम्हारे अनेक
व्यक्तित्वों का, मेरे भी अनेक व्यक्तित्वों का सम्मिलन और विकसन - केवल
मेरे उस एक पहलू का नहीं, जिसे मैं तुम्हें नहीं छूने दूँगी - जिससे मैं
तुम्हें असम्पृक्त रखूँगी भुवन, तुम्हीं को नहीं, उस अपने को भी जिसे
तुमने प्यार किया है - अगर तुम ने किया है; जिसने तुम्हें प्यार किया है
जैसा और किसी को नहीं - प्राणी, वस्तु, विचार, भावना, किसी को नहीं...।”
“शिथिल
मत होना, महाराज; आत्मा का शैथिल्य ही प्यार की पराजय है, हम दोनों को
बराबर सतर्क, सजग रहना है - क्योंकि हम दोनों ऐसे आत्म-निर्भर
स्वतः-सम्पूर्ण हैं कि सहज ही बहकर, सिमटकर अलग हो जा सकते हैं -
अपनी-अपनी सीपियों में बन्द, अन्तरंग अनुभूति के छोटे-छोटे द्वीप - और इस
प्रकार बरसों जीते रह सकते हैं, मौन, शान्त, लेकिन एकाकी...”
“मैं
सोचती हूँ और अवाक् रह जाती हूँ : मेरे साथ यह कैसे घटित हुआ - मेरे,
जिस्म में सब वासना, सब आकांक्षा मर गयी थी - जो स्त्री होना भी नहीं
चाहती थी, माँ होना तो दूर...।
ह्वेन आइ एम डेड , माई
डीयरेस्ट
सिंग नो सैड सांग्स
फार मी -
(प्रियतम , मेरे मरने पर मेरे लिए कोई शोकगीत मत गाना -क्रिस्टिना
रोजे॓टी)
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