उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
यह तुम ने पढ़ी है? मुझे पूरी याद नहीं है, पर तुम्हें होगी।”
“मैं
नहीं जानती कि यह भूल है या ठीक, भुवन, कर्म को जज करना मैंने छोड़ दिया
है, क्योंकि जब जज करने बैठती हूँ, तो मानना पड़ता है कि न्याय करने वाला
विधाता ही गलतियाँ करता है! अब इतना ही मानती हूँ कि भीतर से जो प्रेरणा
है, अगर उसके साथ ही पाप का, अपराध का बोध नहीं जुड़ा हुआ है तो वही ठीक
है, वही नैतिक है। यह नैतिकता अधूरी हो सकती है - पर इसलिए कि उसे देने
वाला व्यक्तित्व अधूरा है। उस व्यक्तित्व की तो वह सर्वोच्च रचना है - उसी
की कल्याण-कामी, कल्याण-प्रद सम्भावनाओं की सर्व-श्रेष्ठ अभिव्यक्ति..।”
“भुवन,
बड़ा कष्ट है भुवन... यहाँ सब-कुछ बदल गया है - कमरे में अँधेरा है - कैसा
गाढ़ा द्रव अँधेरा जिसमें मैं हाथ-पैर मारती हूँ... फिर कभी हवा इतनी हलकी
हो जाती है कि मैं हाँफने लगती हूँ, साँस लेती हूँ, पर हवा नहीं मिलती -
ऊपर लगता है मृत्यु मँडराती है, उसके पंखों की फड़फड़ाहट सुन पड़ती है -
मुझे माफ़ कर दो, भुवन, मुझे...।”
“जो सुन्दर है, निरन्तर विकास
करता है, रुक नहीं सकता : दूसरों को आनन्द देता है। तो क्या - मैं भूल
करती आयी हूँ, क्या मैं बहते पानी को बाँधना चाहती आयी हूँ, क्या मैंने
दूसरों के लिए दुःख ही की सृष्टि की है? अगर ऐसा है तो उसका भरपूर दण्ड
मुझे मिले - विधि से, और तुम से भी, भुवन! लेकिन मुझसे कुछ कहता है कि
नहीं, अपने लिए मैंने जो किया हो - और, हाँ, तुम्हारे लिए भी, मेरे दुःख
के साथी और सहभोक्ता, सहस्रष्टा - दूसरों के लिए मैंने दुःख नहीं बोया,
भुवन - कह दो कि नहीं बोया और ये सब झूठ बोलते हैं - ये खुद असुन्दर को
लेकर मुझे भी उसकी सड़ाँध में पचा देना चाहते हैं! पर नहीं, मैं नहीं छूने
दूँगी उन्हें कुछ जो मूल्यवान् है - इसी में मैं मर जाऊँ तो वह मेरा 'ऐक्ट
आफ़ फ़ेथ'*(* धर्म-परीक्षा) हो - अभी जो हो भुवन, मैं धारे बैठी हूँ कि यह
दर्द भी आगे आनन्द देगा क्योंकि वह विश्वास के साथ अपनाया गया है, मैं
अपने को समर्पित करके उसे ले रही हूँ...।”
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