उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“तुम अब जब मुझे देखोगे, पहचानोगे? अपनाओगे?”
“नहीं
तुम चले जाना भुवन, मुझे अकेली छोड़कर चले जाना। जीवन के सारे
महत्त्वपूर्ण निर्णय व्यक्ति अकेले में करता है, सारे दर्द अकेले में
भोगता है - और तो और, प्यार के चरम आत्म-समर्पण का सबसे बड़ा दर्द भी...।
मिलने में जो विरह का परम रस होता है - तुम जानते हो उसे? समर्पण के धधकते
क्षण में जब ज्ञान चीत्कार कर उठता है कि हम अलग ही हैं, देना सम्पूर्ण
नहीं हुआ, कि मिटने में भी मैं-मैं हूँ, तू-तू है, मैं तू नहीं हूँ और
हमारी माँग बाकी है...। इतना अभिन्न मिलन क्या हो सकता है कि माँग बाकी न
रहे? सारी सृष्टि में रमा हुआ ईश्वर भी तो अकेला है, अपनी सर्व-व्याप्ति
में अकेला, अपनी अद्वितीयता में अयुत, विरही...।
“इसलिए तुम, भुवन,
चले जाना। मैं शिकायत नहीं करूँगी, मन में भी नहीं। मान लूँगी कि मेरा
व्रत पूरा हुआ - कि मैंने तुम्हें वही दिया जो देय था, स्वच्छ था और उससे
बचा लिया जिससे तुम्हें रखना चाहती थी।”
“ठीकरे ने स्वप्न देखा,
वह सोने का अमृत-पात्र है। स्वप्न था, अन्ततः चुक गया। जाग कर उसने जाना
कि वह केवल ठीकरा है। कहने लगा, “मैं देवता के अमृत-पात्र का ठीकरा हूँ।”
पर इसलिए क्या वह कम ठीकरा है? या कि अधिक - क्योंकि वह बृहत्तर
सम्भावनाओं का ठीकरा है?”
“अनाथ, लावारिस धूल...।”
“तुम्हीं में मेरी आशा है, तुम्हीं में मेरे सकल द्वन्द्वों का शमन।”
“वेदों
की विवाह की ऋचाएँ हैं - सुन्दर जानो तो सुन्दर, अश्लील मानो तो अश्लील।
मुझे याद आता है - 'अस्थि से अस्थियाँ, मज्जा से मज्जा, त्वचा से त्वचा को
युक्त करता हूँ...' ठीक कहती हैं वे, हमने आँखों से आँखों को वरा था, ओठ
से ओठ को, वक्ष से वक्ष को, प्राण से प्राण को; प्यार से प्यार को, और
हाँ, वासना से वासना को...।
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