उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“और यह एक मैला नाखून, एक पार से दूसरे पार तक उस संयुति को फाड़ता हुआ
चला जा रहा है...।
“और मैं नहीं जानती कि उत्तरदायी मैं नहीं हूँ...।
“मुझे कभी भी माफ़ करोगे, भुवन?”
“नहीं
सहा जाता, भुवन! इसलिए नहीं कि कष्ट बहुत है, इसलिए कि मैं ऐसी लड़ाई
लड़ते थक गयी हूँ जो व्यर्थ है, और जो अनिवार्यतः व्यर्थता ही में समाप्त
हो सकती है...मान ही लो कि हम रह सकते-घर होता, संयुक्त जीवन होता, वह
सर्जन-बीनकार भी आता - फिर क्या? मान लो कि मैं दस वर्ष बाद मरती हूँ -
क्या।
उससे अच्छा नहीं है कि अभी मर जाऊँ? या कि दस वर्ष बाद हम उदासीन, अलग हो
जायें - उससे हज़ार गुना अच्छा है आज मर जाना!
“मैं
विमूढ़ हो गयी हूँ! भुवन, मेरी कुछ समझ में नहीं आता कि क्या हुआ है और हो
रहा है। ऐसी ही विमूढ़ सुन्न अवस्था में मेरे बरसों बीते हैं, इतना ही
जानती हूँ कि तुम - इसीलिए और भी मर जाना चाहती हूँ, क्योंकि समझती हूँ,
मेरी आकस्मिक अचिन्तित हरकतों से तुम्हें अपार क्लेश होगा। मुझ में डंक
नहीं है, फिर भी चोट पहुँचाती हूँ - और तुम चुपचाप सह लेते हो - क्यों
इतने चुपचाप सहते हो, भुवन; तुम्हारी चुप्पी तो मुझे और सालती है, मैं
चाहती हूँ कि इसी क्षण धरती में समा जाऊँ...।
“हजारों हैं, जिनमें
प्यार मर जाता है लेकिन जो फिर भी जीते हैं, हँसते हैं...लेकिन यह मैं
क्या लिख रही हूँ - क्या कह रही हूँ? यही कि मैं जीती हूँ भुवन, और
तुम्हें प्यार करती हूँ : और सब भाव्य और सम्भाव्य अभी पड़े रहे जब तक
मेरी शक्ति फिर लौट आये।”
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