उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“तुम ने मेरी बात नहीं समझी थी। तुम आहत हुईं। शायद
अब भी न समझो। और शायद न समझना ही अच्छा है, समझना सब मानो मेघाच्छन्न
होना है, और वह मुझ जैसों के लिए ही अच्छा है जो बीत गये हैं, जिनका जीवन
आन्तरिक हो गया है, जो अपनी समझ की मेघ-छाया में रहने के आदी हो गये हैं।
तुम्हारे लिए नहीं, जिसका भविष्य आगे है, भविष्य जो सुनहला हो, जिसमें
हँसी हो, बालारुण की आभा हो, आलोक हो... मैं जैसे तमिस्रा का पोष्य पुत्र
हूँ - इसीलिए आलोक को पूजता आया हूँ, कभी दूर से, जैसा कि ठीक है, कभी
निकट से, जैसा कि विपज्जनक है; कभी छूने को ललचाया हूँ, जो महान् मूर्खता
है, क्योंकि छूने से आलोक बुझ जाता है!”
“रवि ठाकुर ने कहीं लिखा
है : “मैं उस विशाल मरु की तरह हूँ जो घास की एक हरी पत्ती को पकड़ लेने
के लिए हाथ बढ़ाता है' - मैं कहूँ कि मैंने इसकी विडम्बना जान ली है, घास
की पत्ती को निकट लाने के लिए मरु फैलता नहीं, सिमटता है; सिमट कर अकिंचन
होकर ही वह पत्ती को पकड़ तो नहीं, लगभग छू सकता है।”
“स्नेह-शिशु
तुम ने मुझे कहा था : मैं किसी तरह नहीं सोच पाता कि यह नाम मैंने नहीं
ढूँढ़ा था, कि मैंने नहीं तुम्हें दिया था। तुम्हारी ही चीज तुम्हें
लौटाता हूँ, लेकिन शतगुण स्नेह से, गौरा!”
“तुमने मुझसे वचन
माँगा था, अपने को अनावश्यक संकट में न डालूँगा। क्या यह अनावश्यक संकट
है? संकट भी है? या कि यहाँ न आना ही संकट होता - वहाँ रहना ही संकट होता
है?”
“जंगल, घने बादल, तीन बजे दिन में अँधेरा-सा; हाथियों के
झुण्ड-से बादल-गड्ड-मड्ड होते हुए हज़ारों हाथियों के महायूथ-से...एक
आकृति दूसरी में घुल जाती है, लेकिन कलौंस ज़रा भी कम नहीं होती; भीतर न
जाने क्या-क्या माँगें उठती हैं और उतनी ही नीरवता में, उतनी ही
निष्पत्तिहीन विलीन हो जाती हैं...मैं सोच नहीं सकता, ध्यान केन्द्रित
नहीं कर सकता; एक ही स्पन्दन जैसे हर बात में गूँज जाता है और उसको सुनने
के सिवा चारा नहीं है... पर साथ ही उसे सुनकर भी काम नहीं चलता - उधर
ध्यान दूँ तो वह ऐसा अभिभूत कर लेगा कि बस..।”
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